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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-113 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-109 क्योंकि अंग आगमों की विषयवस्तु उनके ही अंतःसाक्ष्यों के आधार पर पर्याप्त रूप से बदल गई है। प्रथमतः, आचारांग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध भी कुछ परवर्तीकालीन है। उसके प्रथम श्रुतस्कंध की मुख्य-मुख्य बातों को छोड़कर उनमें भी कालक्रम में कुछ बातें डाल दी गई हैं। यद्यपि भगवतीसूत्र को भगवान् महावीर और गौतम के बीच संवाद रूप माना जाता है, किन्तु इसमें नन्दीसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र आदि के जो निर्देश उपलब्ध हैं, वे यह तो अवश्य बताते हैं कि वल्लभी की वाचना के समय इसे न केवल लिपिबद्ध किया गया, अपितु इसकी सामग्री को व्यवस्थित और सम्पादित भी किया गया है। ज्ञाताधर्मकथा महावीर द्वारा कथित दृष्टान्तों एवं कथाओं के संकलन रूप है। भाषिक-परिवर्तन के बावजूद भी यह ग्रंथ अपने मूल स्वरूप में बहुत-कुछ सुरक्षित रहा है। उपासकदशा की भी यही स्थिति है, किन्तु अन्तकृत्दशा की विषयवस्तु पर्याप्त रूप से परिवर्तित और परिवर्द्धित हुई है। उसमें स्थानांग के उल्लेखानुसार 10 अध्ययन थे, जबकि आज 8 वर्ग और 10 अध्ययन हैं, यही स्थिति अनुत्तरोपपातिक और विपाकसूत्र की भी मानी जा सकती है। प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु तो पूर्णतः दो बार बदल चुकी है। विपाकसूत्र में आज सुखविपाक और दुखःविपाक ऐसे दो वर्ग हैं और बीस अध्ययन हैं, जबकि पहले इसमें दस ही अध्ययन थे। इसी प्रकार, कुछ आगमों की विषयवस्तु पूर्णतः बदल गई है और कुछ की विषय-वस्तु में कालक्रम में परिवर्तन, परिवर्द्धन एवं संशोधन हुआ है, किन्तु आचारांग, सूत्रकृतांग, भगवती, ज्ञाता आदि में बहुत-कुछ प्राचीन अंश आज भी सुरक्षित हैं। ___ अंगबाह्य साहित्य में उपांगसूत्रो में प्रज्ञापना आदि के कुछ के कर्ता और काल सुनिश्चित हैं। प्रज्ञापना ईसापूर्व या ईसा की प्रथम शती की रचना है। उववाई या औपपातिकसूत्र की विषयवस्तु में भी, जो सूचनाए उपलब्ध है और जो सूर्याभदेव की कथा वर्णित है, ये सब उसे ईसा की प्रथम शती के आस-पास का ग्रंथ सूचित करती हैं। राजप्रश्नीय का कुछ अंश तो पालीत्रिपिटक के समरूप है। उसमें आत्मा या चित्तसत्ता के प्रमाणरूप जो तर्क दिये गये हैं, वे त्रिपिटक के समान ही हैं, जो उसकी प्राचीनता के प्रमाण भी हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति एवं चन्द्रप्रज्ञप्ति का ज्योतिष भी
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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