________________ जैन धर्म एवं दर्शन-106 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-102 विधाओं का विपुल साहित्य भी प्राकृत भाषा में ही है। प्राकृत भाषा में रचित जैन-साहित्य में प्राचीनता की अपेक्षा मुख्यतः उनका आगम-साहित्य आता है। आगमों के अतिरिक्त दिगम्बर-परम्परा के अनेक आगमतुल्य ग्रंथ भी प्राकृत भाषा में ही रचित हैं। इसके अतिरिक्त, जैन कर्मसाहित्य के विविध ग्रंथ भी प्राकृत-भाषा में ही मिलते हैं। इनके अतिरिक्त, जैन-साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण विधा कथा-साहित्य भी प्राकृत भाषा में विपुल रूप में पाया जाता है। इनके आचार् व्यवहार खगोल-भूगोल और ज्योतिष सम्बंधी कुछ ग्रंथ भी प्राकृत भाषा में ही पाये. जाते हैं। जहाँ तक जैनदर्शन सम्बंधी ग्रंथों का प्रश्न है, सन्मतितर्क (सम्मइसुत्त), नवतत्त्वपयरण, पंचास्तिकाय जैसे कुछ ही ग्रंथ प्राकृत में मिलते हैं, यद्यपि प्राकृत आगम-साहित्य में भी जैनों का दार्शनिक-चिन्तन पाया जाता है। इसी क्रम में जैनधर्म के ध्यान और योग-सम्बंधी अनेक ग्रंथ भी प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं। प्राकृत-साहित्य बहुआयामी है। यदि कालक्रम की दृष्टि से इस पर विचार किया जाये, तो हमें ज्ञात होता है कि जैनों का प्राकृत भाषा में निबद्ध साहित्य ई०पू० पांचवीं शती से लेकर ईसा की 20वीं शती तक लिखा जाता रहा है। इस प्रकार, प्राकृत के जैनसाहित्य का इतिहास लगभग ढाई सहस्राब्दी का इतिहास है। अतः, यहाँ हमें इस सब पर क्रमिक-दृष्टि से विचार करना होगा। जैन प्राकृत आगम साहित्य प्राकृत-जैन-साहित्य के इस सर्वेक्षण में प्राचीनता की दृष्टि से हमें सर्वप्रथम जैन-आगम-साहित्य पर विचार करना होगा। हमारी दिगम्बर परम्परा आगम-साहित्य को विलुप्त मानती है। यह भी सत्य और तथ्य है कि आगम साहित्य का विपुल अंश और उसके अनेक ग्रंथ आज अनुपलब्ध हैं, किन्तु इस आधार पर यह मान लेना कि आगम-साहित्य पूर्णतः विलुप्त हो गया, उचित नहीं होगा। जैनधर्म की यापनीय एवं श्वेताम्बर-शाखाएँ आगमों का पूर्ण विलोप नहीं मानती हैं। आज भी आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित आदि ग्रंथों में प्राचीन सामग्री अंशतः ही सही, किन्तु उपलब्ध है। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अनेक सूत्र और ऋषिभाषित (इसिभासियाई) इस बात के प्रमाण हैं कि प्राकृत-जैन-साहित्य