________________ जैन धर्म एवं दर्शन-105 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-101 यह ज्ञातव्य है, कि जहाँ जैनधर्म की श्वेताम्बर-शाखा का साहित्य अर्द्धमागधी और महाराष्ट्री-प्राकृत में है, वहीं दिगम्बर एवं यापनीय-शाखा का साहित्य, शौरसेनी-प्राकृत में पाया जाता है, यहाँ यह भी ज्ञातव्य है, कि छान्दस्, अभिलेखीयप्राकृत, पाली और प्राचीन अर्द्धमागधी एक-दूसरे से अधिक दूर भी नही हैं। वस्तुतः, सुदूर क्षेत्र की भायूरोपीय-वर्ग की सभी भाषाएं एक-दूसरे के निकट ही देखी जाती हैं, आज भी आचारांगसूत्र की प्राचीन प्राकृत में अंग्रेजी के अनेक शब्द-रूप देखे जाते हैं, जैसे-बोंदि (Body), एस (As), आउट्टे (Out), चिल्लड़ (Childern) आदि। आज प्राकृत की प्रत्येक संगोष्ठी में यह प्रश्न भी उठाया जाता है कि प्राकृत से संस्कृत बनी या संस्कृत से प्राकृत बनी तथा इनमे कौन कितनी प्राचीन है। जैन-परम्परा में ही जहाँ नमिसाधु प्राकृत से संस्कृत के निर्माण की बात कहते हैं, वहीं हेमचन्द्र 'प्रकृति संस्कृतम्' कहकर संस्कृत से प्राकृत के विकास को समझाते हैं। यद्यपि यह भ्रान्ति भाषाओं के विकास के इतिहास के अज्ञान के कारण है। सर्वप्रथम हमें बोली और भाषा के अंतर को समझ लेना होगा। प्राकृत अपने आप में एक बोली भी रही है और भाषा भी / भाषा का निर्माण बोली को व्याकरण के नियमों में जकड़कर किया जाता है, अतः यह मानना होगा कि संस्कृत का विकास प्राकृत-बोलियों से हुआ है। प्राकृत मूल में भाषा नहीं, अनेक बोलियों के रूप रही है। इस दृष्टि से प्राकृत बोली के रूप में पहले है और संस्कृत भाषा उसका संस्कारित रूप. है। दूसरी ओर, यदि प्राकृतभाषा की दृष्टि से विचार करें, तो प्राकृत-भाषाओं का व्याकरण संस्कृत व्याकरण से प्रभावित हैं, अतः संस्कृत पहले और प्राकृत (लोकभाषाएँ) परवर्ती हैं। मूल में प्राकृत-भाषाएँ अनेक बोलियों से विकसित हुई है, अतः वे अनेक हैं। संस्कृत-भाषा व्याकरणनिष्ठ होने से परवर्ती काल में एक रूप ही रही है। जैन-ग्रंथो में भी प्राकृतों के अनेक रूप जाते हैं, यथा-मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी-महाराष्ट्री और उनसे विकसित विभिन्न अपभ्रंशें / आज जो भी प्राचीन स्तर का जैन-साहित्य है, वह सभी इन विविध प्राकृतों में लिखित है। यद्यपि जैनाचार्यों ने ईसा की तीसरी-चौथी शती से संस्कृत भाषा को भी अपनाया और उसमें भी विपुल मात्रा में ग्रंथों की रचना की, फिर भी उनका मूल आगमसाहित्य, आगमतुल्य और अन्य विविध