________________ जैन धर्म एवं दर्शन-104 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-100 विभाग 1 (ब) जैनसाहित्य का संक्षिप्त इतिहास जैन प्राकृत साहित्य भारतीय संस्कृति एक समन्वित संस्कृति है। अति प्राचीनकाल से ही इसमें दो धाराएँ प्रवाहित होती रही हैं- वैदिक और श्रमण, यद्यपि ये दो स्वतंत्र धाराएँ मूलतः मानव-जीवन के दो पक्षों पर आधारित रही हैं। मानव जीवन स्वयं विरोधाभासपूर्ण है? वासना (जैविक-पक्ष/शरीर) और विवेक (अध्यात्म)- ये दोनो तत्त्व उसमें प्रारम्भ से ही समन्वित हैं। परम्परागत दृष्टि से इन्हें शरीर और आत्मा भी कह सकते है। जैसे ये दोनो पक्ष हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित करते रहते हैं, वैसे ही ये दोनो संस्कृतियाँ भी एक दूसरे को प्रभावित करती रही हैं। भाषा की दृष्टि से भी ये दोनो संस्कृतियाँ दो भिन्न भाषाओं के साहित्य,से पुष्ट होती रही है। जहाँ वैदिक संस्कृति में संस्कृत की प्रधानता रही है, वही श्रमण-संस्कृति में लोकभाषा या प्राकृत की प्रधानता रही है। आदिकाल से ही वैदिक-धारा की साहित्यिक-गतिविधियाँ संस्कृत-केन्द्रित रही हैं, यद्यपि उसमें संस्कृत के तीन रूप पाये जाते है-1. छान्दस्, 2. छान्दस् प्रभावित पाणिणीय-संस्कृत और 3. साहित्यिक व्याकरण-परिशुद्ध संस्कृत। छान्दस्, जो मूलतः वेदों की भाषा है। ब्राह्मणग्रंथों पर तो छान्दस् का ही अधिक प्रभाव रहा है, किन्तु आरण्यकों और उपनिषदों की भाषा छान्दस्-प्रभावित पाणिणीयव्याकरण से परिमार्जित साहित्यिक-संस्कृत रही है। पुराण आदि परवर्ती वैदिक-परम्परा का साहित्य- व्याकरण परिशुद्ध साहित्यिक संस्कृत में ही देखा जाता है, जबकि श्रमणधारा ने प्रारम्भ से ही लोकभाषा को अपनाया। देश और काल की अपेक्षा से इसके भी अनेक रूप पाये जाते हैं, यथामागधी, पाली, पैशाची, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री और अपभ्रंश। बौद्धों का परम्परागत त्रिपिटक-साहित्य पाली-भाषा में है, जो मूलतः मागधी और अर्द्धमागधी के निकट है, वहीं जैन-परम्परा का साहित्य मूलतः अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री और अपभ्रंश में पाया जाता है। यहा