________________ जैन धर्म एवं दर्शन-107 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-103 औपनिषदिक-काल में भी जीवन्त था। यहाँ तक कि आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के अनेक सूत्र औपनिषदिक-सूत्रों से यथावत् समानता रखते हैं, वही इसिभासियाइं याज्ञवल्क्य आदि 22 औपनिषदिक-ऋषियों, अनेक बौद्ध भिक्षुओं, जैसे- सारिपुत्त, वज्जीयपुत्त और महाकाश्यप, आजीवकमंखलिगोशाल एवं अन्य विलुप्तप्राय श्रमणधाराओं के ऋषियों के उपदेशों को प्राचीनतम प्राकृत भाषा में यथार्थ रूप से प्रस्तुत करता है। इसिभासियाई में 45 ऋषियों के उपदेश संकलित हैं। इनमें मात्र पार्श्व और वर्द्धमान (महावीर) को छोडकर शेष सभी औपनिषदिक, बौद्ध, आजीवक आदि अन्य श्रमणधाराओं से सम्बंधित हैं। आश्चर्य यह है कि इनमें से अधिकांश को अर्हत्-ऋषि कहकर सम्बोधित किया गया है, जो जैन-चिन्तकों की उदारदृष्टि का परिचायक है। ज्ञातव्य है कि यह ग्रंथ जैनधर्म के साम्प्रदायिक घेरे में आबद्ध होने के पूर्व की स्थिति का परिचायक है। ज्ञातव्य है कि जब जैनधर्म साम्प्रदायिक घेरे में आबद्ध होने लगा, तब यह प्राचीनतम प्राकृत का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ भी उपेक्षा का शिकार हुआ, इसकी विषय-वस्तु को दसवें अंगआगम से हटाकर प्रकीर्णक के रूप में डाला गया। सद्भाग्य यही है कि यह ग्रंथ आज भी अपने वास्तविक स्वरूप में सुरक्षित है। प्राकृत और संस्कृत के विद्वानों से मेरी यही अपेक्षा है कि इस ग्रंथ के माध्यम से भारतीय संस्कृति की उदार और उदात्तदृष्टि को पुनर्स्थापित करने का प्रयत्न करें। ज्ञातव्य है कि अन्य जैन आगमों में ऋषिभाषित के अनेक सन्दर्भ आज भी देखे जाते हैं। जैन आगम साहित्य के वर्गीकरण और संख्या का प्रश्न . . जैन आगम-साहित्य का वर्गीकरण दो रूपो में पाया जाता हैअंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य / प्राचीन काल से श्वेताम्बर और दिगम्बरपरम्परा में आगमों को अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य- ऐसे दो विभागों में बाटा जाता रहा है। अंगप्रविष्ट ग्रंथों की संख्या बारह मानी गयी है और इनके नामों को लेकर भी दोनों परम्पराओं में कोई मतभेद नहीं है। उन दोनो में बारह अंगों के निम्न नाम भी समान रूप से माने गये हैं- 1. आचारांग, 2. सूत्रकृतांग, 3. स्थानांग, 4 समवायांग, 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र),