________________ जैन धर्म एवं दर्शन-99 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-95 उत्तर भारत और दक्षिण–भारत-दोनों में ही स्थान-स्थान पर भट्टारकों की गदियाँ थी और धीरे-धीरे सामन्तों की तरह ये भी अपने क्षेत्रों और अनुयाथियों पर अपना शासन चला रहे थे। भट्टारकों में भी अनेक संघ यथा- काष्ठा, माथुर, मूल, लाड़वागढ़, द्रविड़ आदि थे, जो कि कुछ गण या गच्छों में विभाजित थे। जहाँ तक श्वेताम्बर-परम्परा का प्रश्न है, उसमें संविग्न और सुविहित-मुनियों का पूर्ण अभाव तो नहीं हुआ था, फिर भी चैत्यवासी यतियों की ही प्रमुखता थी। समाज पर वर्चस्व यति-वर्ग का ही था और उनकी स्थिति भी मठवासी भट्टारकों के समान ही थी। धार्मिक क्रियाकाण्डों के साथ यति-वर्ग मन्त्र-तन्त्र और चिकित्सा आदि से जुड़ा हुआ था। यह मात्र कहने की दृष्टि से ही त्यागी-वर्ग कहा जाता है। वस्तुतः, आचार की अपेक्षा से उनके पास उस युग के अनुरूप भोग की सारी सुविधायें उपलब्ध होती थीं। यति-वर्ग इतना प्रभावशाली था कि अपने प्रभाव से संविग्न एवं सुविहित-मुनियों को अपने वर्चस्व-क्षेत्र से प्रवेश करने में भी रोक देते थे। इस्लाम के प्रभाव के साथ-साथ भट्टारकों एवं यतियों के आचारशैथिल्य एवं धर्माचरण के क्षेत्र में कर्मकाण्डों का वर्चस्व ऐसी स्थितियाँ थीं कि जिसने लोकाशाह को धर्मक्रान्ति हेतु प्रेरणा दी। लोकाशाह ने मूर्तिपूजा, कर्मकाण्ड और आचार-शैथिल्य का विरोध कर जैन धर्म को एक नवीन दिशा दी। उनकी इस साहसपूर्ण धर्मक्रान्ति का प्रभाव यह हुआ कि प्रायः सम्पूर्ण उत्तर-पश्चिम भारत में लाखों की संख्या में उनके अनुयायी बन गये। कालान्तर में उनके अनुयायियों का यह वर्ग गुजराती लोकागच्छ, नागौरी लोकागच्छ और लाहोरी-लोकागच्छ के रूप में तीन भागों में विभाजित हो गया, किन्तु श्वेताम्बर–मूर्तिपूजक यति–परम्परा के प्रभाव से शनै:-शनैः आचार-शैथिल्य की ओर बढ़ते हुए इसने पुनः यति परम्परा का रूप ले लिया, फलतः लोकाशाह की धर्मक्रान्ति के लगभग 150 वर्ष पश्चात् पुनः एक नवीन धर्मक्रान्ति की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। इसी लोकागच्छ यति-परम्परा में से निकलकर जीवराजजी, लवजीऋषिजी, धर्मसिंहजी, धर्मदासजी, मनोहरदासजी, हरजीस्वामीजी आदि ने पुनः एक धर्मक्रान्ति का उद्घोष किया और