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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-98 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-94 ने न केवल अपने खजांची के रूप में मान्यता दी थी, अपितु उनके धार्मिक आन्दोलन को एक मूक स्वीकृति तो प्रदान की थी। लोकाशाह का काल मोहम्मद तुगलक की समाप्ति के बाद शेरशाह सूरि और बांबर का सत्ताकाल था। मुस्लिम बादशाह से अपनी आजीविका पाने के साथ-साथ हिन्दू-अधिकारी मुस्लिम धर्म और संस्कृति से प्रभावित हो रहे थे। ऐसा लगता है कि अहमदाबाद के मुस्लिम-शासक के साथ काम करते हुए उनके धर्म की अच्छाइयों का प्रभाव भी लोकाशाह पर पड़ा। दूसरी ओर, उस युग में हिन्दू-धर्म के समान जैन धर्म भी मुख्यतः कर्मकाण्डी हो गया था। धीरे-धीरे उसमें से धर्म का आध्यात्मिक-पक्ष विलुप्त होता जा रहा था। चैत्यवासी यति कर्मकाण्ड के नाम पर अपनी आजीविका को संबल बनाने के लिए जनमानस का शोषण कर रहे थे। अपनी अक्षरों की सुन्दरता के कारण लोकाशाह को जब प्रतिलिपि करते समय आगम-ग्रन्थों के अध्ययन का मौका मिला, तो उन्होंने देखा कि आज जैन-मुनियों के आचार में भी सिद्धान्त और व्यवहार में बहुत बड़ी खाई आ गई है। साधकों के जीवन में आई सिद्धान्त और व्यवहार की यह खाई जर मान्य की चेतना में अनेक प्रश्न खड़े कर रही थी। लोकाशाह के लिए यह एक अच्छा मौका था कि वे कर्मकाण्ड से मुक्त और आध्यात्मिक-साधना से युक्त किसी धर्म-परम्परा का विकास कर सकें। लोकाशाह के पूर्व जैन-संघ की क्या स्थिति थी? इस सम्बन्ध में थोड़ा विचार पूर्व में कर चुके हैं। लोकाशाह के पूर्व 14वीं, 15वीं शती में जैन संघ मुख्य रूप से तीन सम्प्रदायों में विभक्त था- श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय / इसमें भी लगभग 5वीं शती में अस्तित्व में आई यापनीय-परम्परा अब विलुप्ति के कगार पर थी। एक-दो भट्टारक-गद्दियों के अतिरिक्त स्वतन्त्र रूप से उसका कोई अस्तित्व नहीं रह गया, अतः मूलतः श्वेताम्बर और दिगम्बर-ये दो परम्परायें ही अस्तित्व में थीं। जहाँ तक दिगम्बर-परम्परा का प्रश्न है, तो उस काल में मुनि और आर्या-संघ का कोई अस्तित्व नहीं रह गया था। मात्र भट्टारकों की ही प्रमुखता थी, किन्तु भट्टारक त्यागी-वर्ग के प्रतिनिधि होकर भी मुख्यतः मठवासी बने बैठे थे। मठ की सम्पत्ति की वृद्धि और उसका संरक्षण उनका प्रमुख कार्य रह गया था।
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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