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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-97 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-93 अस्वीकार कर रहा था। ऐसी स्थिति में जैन धर्म के दोनों ही प्रमुख सम्प्रदायों में तीन विशिष्ट पुरुषों ने जन्म लिया। श्वेताम्बर-परम्परा में लोकाशाह और दिगम्बर-परम्परा में बनारसीदास तथा तारणस्वामी। एक ओर, मन्दिर और मूर्तियों को तोड़ा जाना और देश पर मुस्लिम-शासकों का प्रभाव बढ़ना, दूसरी ओर, कर्मकाण्ड से मुक्त सहज और सरल इस्लाम धर्म से हिन्दू और जैन मानस का प्रभावित होना, जैन धर्म में इन अमूर्तिपूजक धर्म-सम्प्रदायों की उत्पत्ति का किसी सीमा तक कारण माना जा सकता है। लोकाशाह का जन्म वि.सं. 1475 के आसपास हुआ। यद्यपि उस काल तक मुस्लिमों का साम्राज्य तो स्थापित नहीं हो सका था, किन्तु देश के अनेक भागों में धीरे-धीरे मुस्लिम शासकों ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था। गुजरात भी इससे अछूता नहीं था। इस युग की दूसरी विशेषता यह थी कि अब तक इस देश में स्थापित मुस्लिम शासक साम्राज्य का स्वप्न देखने लगे थे, किन्तु उसके लिए आवश्यक था भारत की हिन्दू-प्रजा को अपने विश्वास में लेना, अतः . . मोहम्मद तुगलक, बाबर, हुमायूँ आदि ने इस्लाम के प्रचार और प्रसार को अपना लक्ष्य रखकर भी हिन्दुओं को प्रशासन में स्थान देना प्रारम्भ किया, फलतः हिन्दू सामन्त और राज्य कर्मचारी राजा के सम्पर्क में आये। फलतः, कर्मकाण्डमुक्त जाति-पाति के भेद से रहित और भातृ-भाव से पूरित इस्लाम का अच्छा पक्ष भी उनके सामने आया, जिसने यह चिन्तन करने पर बाध्य कर दिया कि यदि हिन्दू धर्म या जैन धर्म को बचाये रखना है, तो उसको कर्मकाण्ड से मुक्त करना आवश्यक है। इसी के परिणामस्वरूप, जैन परम्परा में अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का न केवल उद्वव हुआ, अपितु अनुकूल अवसर को पाकर वह तेजी से विकसित भी हुई। श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में स्थानकवासी परम्परा का और दिगम्बर सम्प्रदाय में तारणपंथ के उदय के नेपथ्य में इस्लाम की कर्मकाण्ड मुक्त उपासना-पद्धति का प्रभाव दिखता है, यद्यपि जैन धर्म की पृष्ठभूमि भी कर्मकाण्डमुक्त ही रही है, अतः यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता है कि इन दो सम्प्रदायों की उत्पत्ति की पीछे मात्र इस्लाम का ही पूर्ण प्रभाव था। परम्परा के अनुसार यह मान्यता है कि लोकाशाह को मुस्लिम-शासन
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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