________________ जैन धर्म एवं दर्शन-100 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-96 आगमसम्मत मुनि-आचार पर विशेष बल दिया, फलतः स्थानकवासीसम्प्रदाय का उदय हुआ। स्थानकवासी-परम्परा का उद्वव एवं विकास किसी एक व्यक्ति से एक ही काल में नहीं हुआ, अपितु विभिन्न व्यक्तियों द्वारा अलग-अलग समय में हुआ, अतः विचार और आचार के क्षेत्र में मतभेद बने रहे, जिसका परिणाम यह हुआ कि यह सम्प्रदाय अपने उदय-काल में ही अनेक उपसम्प्रदायों में विभाजित रहा। * 17 वीं शताब्दी में इसी स्थानकवासी सम्प्रदाय से निकलकर रघुनाथजी के शिष्य भीखणडजी स्वामी ने श्वेताम्बर-तेरापंथ की स्थापना की। इनके स्थानकवासी-परम्परा से पृथक् होने के मूलतः दो कारण रहे- एक ओर, स्थानकवासी-परम्परा के साधुओं ने भी यति-परम्परा के समान ही अपनी-अपनी परम्परा के स्थानकों को निर्माण करवाकर उनमें निवास करना प्रारम्भ कर दिया, तो दूसरी ओर, भीखणजी स्वामी का आग्रह यह रहा कि दया व दान की ये सभी प्रवृत्तियॉ, जो सावध हैं और जिनके साथ किसी भी रूप में हिंसा जुड़ी हुई है, चाहे वह हिंसा एकेन्द्रिय-जीवों की हो, धर्म नहीं मानी जा सकती। कालान्तर में, आचार्य भी, गजी का यह सम्प्रदाय पर्याप्त रूप से विकसित हुआ ओर आज जैन धर्म के एक प्रबुद्ध सम्प्रदाय के रूप में जाना-पहचाना जाता है। इसे तेरापंथ के नौवें आचार्य तुलसीजी और दसवें आचार्य महाप्रज्ञजी ने नई ऊँचाइयाँ दी हैं। ___स्थानकवासी और तेरापंथ के उदय के पश्चात् कमशः बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध, मध्य और उत्तरार्द्ध में विकसित जैन धर्म के सांस्कृतिक-इतिहास की दृष्टि से जो तीन परम्पराएँ अति महत्वपूर्ण हैं, उनमें श्रीमद् राजचन्द्र की अध्यात्मप्रधान–परम्परा में विकसित कविपंथ', स्थानकवासी-परम्परा से निकलकर बनारसीदास के दिगम्बर तेरापंथ को नवजीवन देने वाले कानजीस्वामी का निश्चयनय-प्रधान ‘कानजी पंथ तथा गुजरात के ए. एम. पटेल के द्वारा स्थापित दादा भगवान् सम्प्रदाय मुख्य हैं, यद्यपि ये तीनों सम्प्रदाय मूलतः जैन धर्म की आध्यात्मप्रधान-दृष्टि को लेकर ही विकसित हुए। श्रीमद् राजचन्द्रजी, जिन्हें महात्मा गाँधी ने गुरु का स्थान दिया था, जैन धर्म में किसी सम्प्रदाय की स्थापना की दृष्टि से नहीं, मात्र