________________ जैन धर्म एवं दर्शन-235 जैन - तत्त्वमीमांसा-87 अनित्य है। जमाली के साथ हुए प्रश्नोत्तर में भगवान् महावीर ने अपने इस दृष्टिकोण को स्पष्ट कर दिया है कि वे किस अपेक्षा से जीव को नित्य मानते हैं और किस अपेक्षा से अनित्य / भगवान् महावीर कहते हैं- "हे जमाली! जीव शाश्वत है, तीनों कालों में ऐसा कोई समय नहीं है, जब यह जीव (आत्मा) नहीं था, नहीं है, अथवा नहीं होगा। इसी अपेक्षा से यह जीवात्मा, नित्य, ध्रुव, शाश्वत, अक्षय और अव्यय है। हे जमाली! जीव अशाश्वत है, क्योंकि नारक मरकर तिर्यंच होता है, तिर्यंच मरकर मनुष्य होता है, मनुष्य मरकर देव होता है। इस प्रकार, इन नानावस्थाओं को प्राप्त करने के कारण उसे अनित्य कहा जाता है (भगवतीसूत्र 9/6/387 या 1/41/4) / " नैतिक-विचारणा की दृष्टि से आत्मा को नित्यानित्य (परिणामी-नित्य) मानना ही समुचित है। नैतिकता की धारणा में जो विरोधाभास है, उसका निराकरण केवल परिणामीनित्य आत्मवाद में ही सम्भव है। नैतिकता का विरोधाभास यह है कि जहाँ नैतिकता के आदर्श के रूप में जिस आत्म-तत्त्व की विवक्षा है, उसे नित्य, शाश्वत, अपरिवर्तनशील, सदैव समरूप में स्थित, निर्विकार होना चाहिए, अन्यथा पुनः बन्धन एवं पतन की सम्भावनाएँ उठ खड़ी होंगी, वहीं दूसरी ओर, नैतिकता की व्याख्या के लिए जिस आत्म-तत्त्व की विवक्षा है, उसे कर्ता, भोक्ता, वेदक एवं परिवर्तनशील होना चाहिए, अन्यथा कर्म और उनके प्रतिफल और साधना की विभिन्न अवस्थाओं की तरतमता की उपपत्ति नहीं होगी। जैन-विचारकों ने इस विरोधाभास की समस्या के निराकरण का प्रयास किया है। प्रथमतः, उन्होंने एकान्त-नित्यात्मवाद और अनित्यात्मवाद के दोषों को स्पष्ट कर उनका निराकरण किया, फिर यह बताया है कि विरोधाभास तो तब होता है, जब नित्यता और अनित्यता को एक ही दृष्टि से माना जाय, लेकिन जब विभिन्न दृष्टियों से नित्यता और अनित्यता का कथन किया जाता है, तो उसमें कोई विरोधाभास नहीं रहता है। जैनदर्शन आत्मा को पर्यायार्थिक-दृष्टि (व्यवहारनय) की अपेक्षा से अनित्य तथा द्रव्यार्थिक-दृष्टि (निश्चयनय) की अपेक्षा से नित्य मानकर अपनी आत्मा-सम्बन्धी अवधारणा का प्रतिपादन करता है।