________________ जैन धर्म एवं दर्शन-234 जैन-तत्त्वमीमांसा-86 दूसरे क्षण के पर्याय को मिलेगा, क्योंकि वहाँ उन सतत परिवर्तनशील पर्यायों के मध्य कोई अनुस्यूत एक स्थायी तत्त्व (द्रव्य) नहीं है, अतः यह कहा जा सकेगा कि जिसने किया था, उसे फल नहीं मिला और जिसने नहीं किया था, उसे मिला, अर्थात् नैतिक कर्म-सिद्धान्त की दृष्टि से अकृतागम और कृतप्रणाश का दोष होगा (वीतरागस्तोत्र 8/2/3) / अतः, आत्मा को नित्य मानकर भी सतत परिवर्तनशील (अनित्य) माना जाये, तो उसमें शुभाशुभ आदि विभिन्न भावों की स्थिति मानने के साथ ही उसके फलों का भावान्तर में भोग भी सम्भव हो सकेगा। इस प्रकार, जैन-दर्शन सापेक्ष रूप से आत्मा को नित्य और अनित्य-दोनों स्वीकार करता है। उत्तराध्ययनसूत्र (14/19) में कहा गया है कि आत्मा अमूर्त होने के कारण नित्य है। भगवतीसूत्र (9/6/3/87) में भी जीव को अनादि, अनिधन, अविनाशी, अक्षय, ध्रुव और नित्य कहा गया है, लेकिन सब स्थानों पर नित्यता का अर्थ परिणामी नित्यता ही समझना चाहिए। भगवतीसूत्र एवं विशेषावश्यकभाष्य में इस बात को स्पष्ट कर दिया गया है। भगवतीसूत्र (7/2/273) में भगवान् महावीर ने गौतम के प्रश्न का उत्तर देते हुए आत्मा को शाश्वत और अशाश्वत -दोनों कहा है "भगवान्! जीव शाश्वत है या अशाश्वत ?" "गौतम! जीव शाश्वत (नित्य) भी है और अशाश्वत (अनित्य) भी।" "भगवान्! यह कैसे कहा गया कि जीव नित्य भी है, अनित्य भी?" "गौतम! द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है, भाव की अपेक्षा से अनित्य।" आत्मा द्रव्य (सत्ता) की ओर से नित्य है, अर्थात् आत्मा न तो कभी अनात्म (जड़) से उत्पन्न होती है और न किसी भी अवस्था में अपने चेतना-लक्षण को छोड़कर जड़ बनती है। इसी दृष्टि से उसे नित्य कहा जाता है, लेकिन आत्मा की मानसिक अवस्थाएँ परिवर्तित होती रहती हैं, अतः इस अपेक्षा से उसे अनित्य भी कहा गया है। आधुनिक-दर्शन की भाषा में जैन-दर्शन के अनुसार, तात्त्विक- आत्मा नित्य है और अनुभवाधारित-आत्मा अनित्य है। जिस प्रकार स्वर्णाभूषण स्वर्ण की दृष्टि से नित्य और आभूषण की दृष्टि से अनित्य हैं, उसी प्रकार आत्मा आत्मा-तत्त्व की दृष्टि से नित्य और अपने विचारों और भावों की दृष्टि से