________________ जैन धर्म एवं दर्शन-233 जैन-तत्त्वमीमांसा-85 जैन-परम्परा मानव-जन्म को चरम मूल्यवान् बना देती है। आत्मा की अमरता आत्मा की अमरता का प्रश्न नैतिकता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। पाश्चात्य- विचारक कांट आत्मा की अमरता को नैतिक-जीवन की सुसंगत व्याख्या के लिए आवश्यक मानते हैं। भारतीय-आचारदर्शनों के प्राचीन युग में आत्मा की अमरता का सिद्धान्त विवाद का विषय रहा है। उस युग में यह प्रश्न आत्मा की नित्यता एवं अनित्यता के रूप में अथवा शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के रूप में बहुचर्चित रहा है। वस्तुतः, आत्म-अस्तित्व को लेकर दार्शनिकों में इतना विवाद नहीं है, विवाद का विषय है- आत्मा की नित्यता और अनित्यता। यह विषय तत्त्वज्ञान की अपेक्षा नैतिक-दर्शन से अधिक संबंधित है। जैन-विचारकों ने नैतिक-व्यवस्था को प्रमुख मानकर उसके आधार पर ही नित्यता और अनित्यता की समस्या का हल खोजने की कोशिश की, अतः यह देखना भी उपयोगी होगा कि आत्मा को नित्य अथवा अनित्य मानने पर नैतिक-दृष्टि से कौन-सी कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। आत्मा की नित्यानित्यात्मकता जैन-विचारकों ने संसार और मोक्ष की सिद्धि के लिए न तो नित्य-आत्मवाद को उपयुक्त समझा और न अनित्य-आत्मवाद को। एकान्त-नित्यवाद और एकान्त-अनित्यवाद- दोनों ही सदोष हैं। आचार्य हेमचन्द्र दोनों को नैतिक-दर्शन की दृष्टि से अनुपयुक्त बताते हुए लिखते हैं- यदि आत्मा को एकान्तनित्य मानें, तो इसका अर्थ होगा कि आत्मा में अवस्थान्तर अथवा स्थित्यन्तर नहीं होता। यदि इसे एकान्त अनित्य मान लिया जाये, तो सुख-दुःख, शुभ-अशुभ आदि भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ आत्मा में घटित नहीं होंगी। फिर, स्थित्यन्तर या भिन्न-भिन्न परिणामों, शुभाशुभ भावों की शक्यता न होने से पुण्य-पाप की विभिन्न वृत्तियाँ एवं प्रवृत्तियाँ भी सम्भव नहीं होंगी, न बन्धन और मोक्ष की उत्पत्ति ही सम्भव होंगी, क्योंकि वहाँ इस क्षण के पर्याय ने जो कार्य किया था, उसका फल