________________ जैन धर्म एवं दर्शन-232 जैन-तत्त्वमीमांसा-84 जैन-दर्शन के अनुसार जैविक-आधार पर प्राणियों का वर्गीकरण निम्न तालिका से स्पष्ट हो सकता है__जैविक-दृष्टि से जैन-परम्परा में दस प्राण-शक्तियाँ मानी गयी हैं। स्थावर-एकेन्द्रिय जीवों में चार शक्तियाँ होती हैं- 1. स्पर्श-अनुभव शक्ति, 2. शारीरिक-शक्ति, 3. जीवन (आयु)-शक्ति और 4. श्वसन-शक्ति / द्वीन्द्रिय जीवों में इन चार शक्तियों के अतिरिक्त स्वाद और वाणी की शक्ति भी होती है। त्रीन्द्रिय जीवों में सूंघने की शक्ति भी होती है। चतुरिन्द्रिय जीवों में इन छह शक्तियों के अतिरिक्त देखने की सामर्थ्य भी होती है। पंचेन्द्रिय अमनस्क जीवों में इन आठ शक्तियों के साथ-साथ श्रवण-शक्ति भी होती है और समनस्क-पंचेन्द्रिय जीवों में इनके अतिरिक्त मनःशक्ति भी होती है। इस प्रकार, जैन-दर्शन में कुल दस जैविक-शक्तियाँ या प्राण-शक्तियाँ मानी गयी हैं। हिंसा- अहिंसा के अल्पत्व और बहुत्व आदि का विचार इन्हीं जैविक-शक्तियों की दृष्टि से किया जाता है। जितनी अधिक प्राणशक्तियों से युक्त प्राणी की हिंसा की जाती है, वह उतनी ही भयंकर समझी जाती है। गतियों के आधार पर जीवों का वर्गीकरण जैन-परम्परा में गतियों के आधार पर जीव चार प्रकार के माने गए हैं- 1. देव, 2. मनुष्य, 3. पशु (तिर्यक) और 4. नारक / जहाँ तक शक्ति और क्षमता का प्रश्न है, देव का स्थान मनुष्य से ऊँचा माना गया है, लेकिन जहाँ तक आध्यात्मिक-नैतिक-साधना की बात है, जैन- परम्परा मनुष्य-जन्म को ही सर्वश्रेष्ठ मानती है। उसके अनुसार, मानव-जीवन ही ऐसा जीवन है, जिससे मुक्ति या नैतिक–पूर्णता प्राप्त की जा सकती है। जैन-परम्परा के अनुसार, केवल मनुष्य ही सिद्ध हो सकता है, अन्य कोई नहीं। बौद्ध-परम्परा में भी उपर्युक्त चारों जातियाँ स्वीकृत रही हैं, लेकिन उनमें देव और मनुष्य- दोनों में ही मुक्त होने की क्षमता को मान लिया गया है। बौद्ध-परम्परा के अनुसार, एक देव बिना मानव-जन्म ग्रहण किये देव-गति से सीधे ही निर्वाण प्राप्त कर सकता है, जबकि जैन–घरम्परा के अनुसार, केवल मनुष्य ही निर्वाण का अधिकारी है। इस प्रकार,