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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-236 - जैन-तत्त्वमीमांसा-88 आत्मा और पुनर्जन्म __ आत्मा की अमरता के साथ पुनर्जन्म का प्रत्यय जुड़ा हुआ है। भारतीय-दर्शनों में चार्वाक को छोड़कर शेष सभी दर्शन पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। जब आत्मा को अमर मान लिया जाता है, तो पुनर्जन्म को स्वीकार करना ही होगा। गीता (2/22) कहती है-"जिस प्रकार मनुष्य वस्त्रों के जीर्ण हो जाने पर उनका परित्याग कर नये वस्त्र ग्रहण करता रहता है, वैसे ही आत्मा भी जीर्ण शरीर को छोड़कर नया शरीर ग्रहण करती रहती है।" न केवल गीता में, वरन् बौद्ध-दर्शन में भी इसी आशय का प्रतिपादन किया गया है (थेर गाथा 1/38-388) / डॉ. रामानन्द तिवारी (शंकर का आचार-दर्शन, पृ.68) पुनर्जन्म के पक्ष में लिखते हैं- 'एक जन्म के सिद्धान्त के अनुसार चिरन्तन आत्मा और नश्वर . शरीर का सम्बन्ध एक काल- विशेष में ही अन्त हो जाता है, किन्तु चिरन्तन का कालिक सम्बन्ध अन्याय (तर्क-विरुद्ध) है और इस (एक-जन्म के) सिद्धान्त में उसका कोई समाधान नहीं है-पुनर्जन्म का सिद्धान्त जीवन की एक न्यायसंगत और नैतिक- व्याख्या देना चाहता है। एक-जन्म सिद्धान्त से उनका कोई समाधान नहीं मिलता है- पुनर्जन्म का सिद्धान्त जीवन की एक न्यायसंगत और नैतिक व्याख्या देना चाहता है। एक-जन्म के इस सिद्धान्त के अनुसार, जन्मकाल में भागदेयों के भेद को अकारण एवं संयोगजन्य मानना होगा।" ___ डॉ. मोहनलाल मेहता (जैन साइकोलॉजी, पृ.173) कर्म-सिद्धान्त के आधार पर पुनर्जन्म के सिद्धान्त का समर्थन करते हैं। उनके शब्दों में“कर्म-सिद्धान्त अनिवार्य रूप से पुनर्जन्म के प्रत्यय से संलग्न है, पूर्ण विकसित पुनर्जन्म-सिद्धान्त और कर्मसिद्धान्त एक-दूसरे के अति निकट हैं, फिर भी धार्मिक क्षेत्र में विकसित हुए कुछ दर्शनों ने कर्म को स्वीकार करते हुए भी पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं किया है। कट्टर पाश्चात्य-निरीश्वरवादी-दार्शनिक नित्शे ने कर्म-शक्ति और पुनर्जन्म पर जो विचार व्यक्त किये हैं, वे महत्वपूर्ण हैं। वे लिखते हैं- कर्म-शक्ति के जो हमेशा रूपान्तर हुआ करते हैं, वे मर्यादित हैं तथा काल अनन्त है,
SR No.004420
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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