________________ जैन धर्म एवं दर्शन-226 ‘जैन-तत्त्वमीमांसा-78 से विवर्जित कहा गया है, तथापि आत्मा को शरीराकार स्वीकार किया गया है। आत्मा के आकार के सम्बन्ध में प्रमुख रूप से दो दृष्टियाँ हैं-एक के अनुसार, आत्मा विभु (सर्वव्यापी) है और दूसरी के अनुसार अणु है। सांख्य, न्याय और अद्वैत वेदान्त आत्मा को विभु मानते हैं और रामानुज अणु मानते हैं। जैनदर्शन इस सम्बन्ध में मध्यस्थ-दृष्टि अपनाता है। उसके अनुसार, आत्मा अणु भी है और विभु भी है। वह सूक्ष्म है, तो इतना है कि एक आकाश- प्रदेश के अनन्तवें भाग में समा सकता है और विभु है, तो इतना है कि समग्र लोक को व्याप्त कर सकता है। जैन-दर्शन आत्मा में संकोच-विस्तार को स्वीकार करता है और इस आधार पर आत्मा को स्वदेह-परिमाण मानता है। जैसे दीपक का प्रकाश छोटे कमरे में रहने पर छोटे कमरे को और बड़े कमरे में रहने पर बड़े कमरे को प्रकाशित करता है, वैसे ही आत्मा भी जिस देह में रहता है, उसे चैतन्याभिभूत कर देता है, किन्तु यह बात केवल संसारी-आत्मा के सम्बन्ध में है। मुक्तात्मा का आकार अपने त्यक्त देह का दो तिहाई होता है (उत्तराध्ययन 36) / आत्मा के विभुत्व की समीक्षा 1. यदि आत्मा विभु (सर्वव्यापक) है, तो वह दूसरे शरीरों में भी होगा, फिर उन शरीरों के कर्मों के लिए उत्तरदायी होगा। यदि यह माना जाये कि आत्मा दूसरे शरीरों में नहीं है, तो फिर वह सर्वव्यापक नहीं होगा। 2. यदि आत्मा विभु हैतो दूसरे शरीरों में होने वाले सुख-दुःख के भोग से कैसे बच सकेगा? . 3. विभु आत्मा के सिद्धान्त में कौन आत्मा किस शरीर का नियामक है, यह बताना भी कठिन होगा। वस्तुतः, नैतिक और धार्मिक जीवन के लिए प्रत्येक शरीर में एक आत्मा का सिद्धान्त ही संगत हो सकता है, ताकि उस शरीर के कर्मों के आधार पर उसे उत्तरदायी ठहराया जा सके। 4. आत्मा की सर्वव्यापकता का सिद्धान्त अनेकात्मवाद के साथ