________________ जैन धर्म एवं दर्शन-225 जैन- तत्त्वमीमांसा-77 आत्मा नहीं करता, वह तो अकर्ता है। इन वादियों को सत्य ज्ञान का पता नहीं और न उन्हें धर्म का ही भान है। उत्तराध्ययनसूत्र (23/37) में शरीर को नाव और जीव को नाविक कहकर जीव पर नैतिक या अनैतिक-कर्मों का उत्तरदायित्व डाला गया है। आत्मा भोक्ता है . यदि आत्मा को कर्त्ता मानना आवश्यक है, तो उसे भोक्ता भी मानना पड़ेगा, क्योंकि जो कर्मों का कर्ता है, उसे ही उनके फलों का भोग भी करना चाहिए। जैसे आत्मा का कर्तृत्व कर्मपुदगलों के निमित्त से सम्भव है, वैसे ही आत्मा का भोक्तृत्व भी कर्मपुद्गलों से निर्मित्त शरीर से ही सम्भव है। कर्तृत्व और भोक्तृत्व- दोनों ही शरीरयुक्त बद्धात्मा में पाये जाते हैं, मुक्तात्मा या शुद्धात्मा में नहीं। भोक्तृत्व वेदनीय-कर्म के कारण ही सम्भव है। जैन-दर्शन आत्मा के भोक्तृत्व को भी सापेक्ष-दृष्टि से शरीरयुक्त बद्धात्मा में स्वीकार करता है। . 1. व्यावहारिक-दृष्टि से शरीरयुक्त बद्धात्मा भोक्ता है। 2. अशुद्धनिश्चयनय या पर्यायदृष्टि से आत्मा अपनी मानसिकअनुभूतियों या मनोभावों का वेदक है। . 3. परमार्थ-दृष्टि से आत्मा भोक्ता और वेदक नहीं, मात्र दृष्टा या साक्षीस्वरूप है (समयसार 81-92) / आत्मा में भोक्तृत्व मानना कर्म और उनके प्रतिफल. के संयोग के लिए आवश्यक है। जो कर्ता है, वह अनिवार्य रूप से उनके फलों का भोक्ता भी है, अन्यथा कर्म और उसके फलभोग में अनिवार्य सम्बन्ध सिद्ध नहीं हो सकेगा। ऐसी स्थिति में धर्म एवं नैतिकता का भी कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा, अतः यह मानना होगा कि आत्मा भोक्ता है, लेकिन आत्मा का भोक्ता होना बद्धात्मा या शरीर उधारी आत्मा के लिए ही समुचित है। अमुक्तात्मा भोक्ता नहीं है, वह तो मात्र साक्षीस्वरूप या दृष्टा होता है। आत्मा स्वदेह-परिमाण है __. यद्यपि जैन-विचारणा में आत्मा को रूप, रस, गन्ध, वर्ण, स्पर्श आदि