________________ जैन धर्म एवं दर्शन-224 जैन-तत्त्वमीमांसा-76 शरीर से भिन्न भी है (भगवतीसूत्र 13/7/495). / " इस प्रकार, महावीर ने . आत्मा और देह के मध्य भिन्नत्व और एकत्व- दोनों को स्वीकार किया। आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा और शरीर के एकत्व और भिन्नत्व को लेकर यही विचार प्रकट किये हैं। आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि व्यावहारिक-दृष्टि से आत्मा और देह एक ही हैं, लेकिन निश्चय-दृष्टि से आत्मा और देह कदापि एक नहीं हो सकते (समयसार 27) / वस्तुतः, आत्मा और शरीर में एकत्व माने बिना स्तुति, वन्दन, सेंवा आदि अनेक नैतिक आचरण की क्रियाएँ सम्भव नहीं हो सकतीं। दूसरी ओर, आत्मा और देह में भिन्नता माने बिना आसक्तिनाश और भेदविज्ञान की सम्भावना नहीं हो सकती है। नैतिक और धार्मिक- साधना की दृष्टि से आत्मा का शरीर से एकत्व और अनेकत्व-दोनों अपेक्षित हैं। यही जैनदर्शन की मान्यता है। महावीर ने एकान्तिक-वादों को छोड़कर अनैकान्तिक-दृष्टि को स्वीकार किया था और दोनों विरोधी वादों में समन्वय किया। उन्होंने कहा कि आत्मा और शरीर कथंचित्-भिन्न हैं और कथंचित्-अभिन्न हैं। आत्मा परिणामी है. जैनदर्शन आत्मा को परिणामी नित्य मानता है, जबकि सांख्य एवं शांकर- वेदान्त आत्मा को अपरिणामी (कूटस्थ) मानते हैं। बुद्ध के समकालीन विचारक पूर्णकाश्यप भी आत्मा को अपरिणामी मानते थे। आत्मा को अपरिणामी (कूटस्थ) मानने का तात्पर्य यह है कि आत्मा में कोई विकार, परिवर्तन या स्थित्यन्तर नहीं होता। जैन-आचार सम्बन्धी ग्रन्थों में यह वचन बहुतायत से उपलब्ध होते हैं कि आत्मा कर्ता है। उत्तराध्ययनसूत्र (20/37) में कहा गया है कि आत्मा ही सुखों और दुःखों का कर्ता और भोक्ता है। यह भी कहा गया है कि सिर काटने वाला शत्रु भी उतना अपकार नहीं करता, जितना दुराचरण में प्रवृत्त अपनी आत्मा करती है (उत्तराध्ययन 20/48) / यही नहीं, सूत्रकृतांग (1/1/13-11) में आत्मा को अकर्ता मानने वाले लोगों की आलोचना करते हुए स्पष्ट रूप में कहा गया है- "कुछ दूसरे (लोग) तो धृष्टतापूर्वक कहते हैं कि करना, कराना आदि क्रिया