________________ जैन धर्म एवं दर्शन-227 जैन- तत्त्वमीमांसा-79 कथमपि संगत नहीं हो सकता, साथ ही, अनेकात्मवाद के अभाव में नैतिक जीवन की सुसंगत व्याख्या भी सम्भव नहीं। आत्माएँ अनेक हैं __ आत्मा एक है या अनेक- यह प्रश्न भी दार्शनिक-दृष्टि से विवाद का विषय रहा है। जैनदर्शन के अनुसार, आत्माएँ अनेक हैं और प्रत्येक .. शरीर की आत्मा भिन्न है। यदि आत्मा को एक माना जाता है, तो नैतिक-दृष्टि से निम्न अनेक समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैंएकात्मवाद की समीक्षा 1. आत्मा को एक मानने पर सभी जीवों की मुक्ति और बन्धन एक साथ होंगे। इतना ही नहीं, सभी शरीरधारियों के नैतिक विकास एवं पतन की विभिन्न अवस्थाएँ भी युगपद होंगी, लेकिन ऐसा तो दिखता नहीं। सब प्राणियों का आध्यात्मिक एवं नैतिक-जीवन का स्तर अलग-अलग है। यह भी माना जाता है कि अनेक व्यक्ति मुक्त हो चुके हैं और अनेक अभी बंधन में हैं, अतः आत्माएँ एक नहीं, अनेक हैं। ___ 2. आत्मा को एक मानने पर वैयक्तिक नैतिक-प्रयासों का मूल्य समाप्त हो जायेगा। यदि आत्मा एक ही है, तो व्यक्तिगत प्रयासों एवं क्रियाओं से न तो उसकी मुक्ति सम्भव होगी और न वह बन्धन में ही आयेगा। 3. आत्मा के एक मानने पर नैतिक-उत्तरदायित्व तथा तज्जनित पुरस्कार और दण्ड की व्यवस्था का भी कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। सारांश में, आत्मा को एक मानने पर वैयक्तिकता के अभाव में नैतिक-विकास, नैतिक-उत्तरदायित्व और पुरुषार्थ आदि नैतिक-प्रयत्नों का कोई अर्थ नहीं रह जाता। मरण, बंधन-मुक्ति आदि के संतोषप्रद समाधान के लिए अनेक आत्माओं की स्वतंत्र सत्ता मानना आवश्यक है (विशेषावश्यकभाष्य 1582) / सांख्यकारिका (18) में भी जन्म-मरण इन्द्रियों की विभिन्नता, प्रत्येक की अलग-अलग प्रवृत्ति और स्वभाव तथा नैतिक-विकास की विभिन्नता के आधार पर आत्मा की अनेकता सिद्ध की गयी है।