________________ जैन धर्म एवं दर्शन-215 जैन-तत्त्वमीमांसा-67 प्राणियों की आँखों की संरचना में रंग-अन्धता होती, तो वे संसार की सभी वस्तुओं को केवल श्वेत-श्याम-रूप में ही देखते और उन्हें अन्य रंगों का कोई बोध नहीं होता, लालादि रंगों के अस्तित्व का विचार ही नहीं होता। जिस प्रकार इन्द्रधनुष के रंग मात्र प्रतीति हैं, वास्तविक नहीं, अथवा जिस प्रकार हमारे स्वप्न की वस्तुएँ मात्र मनोकल्पनाएँ हैं, उसी प्रकार गुण और पर्याय भी मात्र प्रतिभास हैं, चित्त-विकल्प हैं, वास्तविक नहीं हैं। - किन्तु, जैन-दार्शनिक अन्य वस्तुवादी दार्शनिकों के समान ही द्रव्य के साथ-साथ गुण और पर्याय को भी यथार्थ / वास्तविक मानते हैं। उनके अनुसार, प्रतीति और प्रत्यय यथार्थ के ही होते हैं, जो अयथार्थ हो उसका कोई प्रत्यय या प्रतीति ही नहीं हो सकती है। आकाश-कुसुम या परी आदि की अयथार्थ कल्पनाएँ भी दो यथार्थ अनुभूतियों का चैत्तसिक-स्तर पर किया गया मिश्रण मात्र है। स्वप्न भी यथार्थ अनुभूतियों और उनके चैतसिक-स्तर पर किये गये मिश्रणों से ही निर्मित होते हैं, जन्मान्ध को कभी रंगों के कोई स्वप्न नहीं होते हैं। अतः, अयथार्थ की कोई प्रतीति नहीं हो सकती है। जैनों के अनुसार, अनुभूति का प्रत्येक विषय अपनी वास्तविक सत्ता रखता है। इससे न केवल द्रव्य, अपितु गुण और पर्याय भी वास्तविक सिद्ध होते हैं। द्रव्य, गुण एवं पर्याय की सत्ता की इस वास्तविकता के कारण ही प्राचीन जैन-आचार्यों ने सत्ता को अस्तिकाय कहा था, अतः उत्पाद-व्यय-धर्मा होकर भी पर्यायें प्रतिभास न होकर वास्तविक हैं। क्रमबद्ध पर्याय और पुरुषार्थ पर्यायों के सम्बन्ध में जो एक महत्वपूर्ण प्रश्न इन दिनों बहुचर्चित है, वह है. पर्यायों की क्रमबद्धता / यह तो सर्वमान्य है कि पर्याय सहभावी और क्रमभावी होती हैं, किन्तु पर्यायें क्रमबद्ध ही हैं- यह विवाद का विषय है। पर्यायें क्रम से घटित होती हैं, किन्तु इस आधार पर यह मान लेना कि पर्यायों के होने का यह क्रम भी पूर्व नियत है, तो फिर पुरुषार्थ के लिए कोई अवकाश नहीं रह जाता है। पर्यायों को क्रमबद्ध मानने का मुख्य आधार जैनदर्शन में प्रचलित सर्वज्ञता की अवधारणा है। जब एक बार यह मान लिया जाता है कि सर्वज्ञ या केवली सभी द्रव्यों की सर्व पर्यायों को