________________ जैन धर्म एवं दर्शन-214 जैन-तत्त्वमीमांसा-66 (छ) सहभावी-पर्याय और क्रमभावी-पर्याय .. जब किसी द्रव्य में या गुण में अनेक पर्यायें एक साथ होती हैं, तो वे सहभावी-पर्याय कही जाती हैं, जैसे पुद्गल-द्रव्य में वर्ण, गन्ध, रस आदि-रूप पर्यायों का एक साथ होना। काल की अपेक्षा से जिन पर्यायों में क्रम पाया जाता है, वे क्रम-भावी पर्याय हैं, जैसे-बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था। (ज) सामान्य-पर्याय और विशेष-पर्याय . .. वैसे तो सभी पर्यायें विशेष ही हैं, किन्तु अनेक द्रव्यों की जो समरूप पर्यायें हैं, उन्हें सामान्य-पर्याय भी कहा जा सकता है, जैसे-अनेक जीवों का मनुष्य पर्याय में होना / ज्ञातव्य है कि पर्यायों में न केवल मात्रात्मक अर्थात् संख्या और अंशों की अपेक्षा से भेद होता है, अपितु गुणों की अपेक्षा से भी भेद होते हैं। मात्रा की अपेक्षा से एक अंश काला, दो अंश फाला, अनन्त अंश काला आदि भेद होते हैं, जबकि गुणात्मक-दृष्टि से काला, लाल, श्वेत आदि अथवा खट्टा, मीठा आदि अथवा मनुष्य, पशु, नारक, देवता आदि भेद होते हैं। गुण और पर्याय की वास्तविकता का प्रश्न ____ जो दार्शनिक सत्ता और गुण में अभिन्नता या तादात्म्य के प्रतिपादक हैं और जो परम सत्ता को तत्त्वतः अद्वैत मानते हैं, वे गुण और पर्याय को वास्तविक नहीं, अपितु प्रतिभासिक मानते हैं। उनका कहना है कि रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि गुणों की सत्ता से पृथक् कोई सत्ता ही नहीं है; ये मात्र प्रतीतियाँ हैं। अनुभव के स्तर पर जिनका उत्पाद या व्यय है, अर्थात् जो परिवर्तनशील हैं, वे सत् नहीं हैं, मात्र प्रतिभास हैं। उनके अनुसार, परमाणु भी एक ऐसा अविभागी पदार्थ है, जो विभिन्न इन्द्रियों द्वारा रूपादि विभिन्न गुणों की प्रतीति कराता है, किन्तु वस्तुतः उसमें इन गुणों की कोई सत्ता नहीं होती है। इन दार्शनिकों की मान्यता यह है कि रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि की अनुभूति हमारे मन पर निर्भर करती है, अतः वे वस्तु के सम्बन्ध में हमारे मनोविकल्प ही हैं। उनकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है। यदि हमारी इन्द्रियों की संरचना भिन्न प्रकार की होती है, तो उनसे हमें जो संवेदना होती, वह भी भिन्न प्रकार की होती। यदि संसार के सभी