________________ जैन धर्म एवं दर्शन-213 जैन-तत्त्वमीमांसा-65 पर्याय-परिणमन को ऊर्ध्वपर्याय-दृष्टि भेदग्राही ही होती है, फिर भी अपेक्षा- भेद से या उपचार से यह कहा गया है। दूसरे रूप में, तिर्यक् द्रव्य-सामान्य के दिक गत भेद का ग्रहण करती है और ऊर्ध्वपर्याय द्रव्य-विशेष के कालगत भेदों को। (घ) स्वभावपर्याय और विभावपर्याय . द्रव्य में अपने निज स्वभाव की जो पर्याय उत्पन्न होती हैं, वे स्वभाव-पर्याय कही जाती हैं और पर के निमित्त से जो पर्यायें उत्पन्न होती हैं, वे विभाव-पर्याय होती हैं, जैसे- कर्म के निमित्त से आत्मा के जो क्रोधादि कषायरूप परिणमन हैं, वे विभाव-पर्याय हैं और आत्मा या केवली का ज्ञाता-दृष्टा भाव स्वभाव-पर्याय हैं। जीवित शरीर पुद्गल की विभाव-पर्याय है और वर्ण, गन्ध आदि पुद्गल की स्वभाव पर्याय हैं। ज्ञातव्य है कि धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल की विभाव-पर्याय नहीं है, क्योंकि ये स्वभावतः निष्क्रिय द्रव्य हैं। घटाकाश, मठाकाश आदि को उपचार से आकाश की विभाव-पर्याय कहा जा सकता है, किन्तु यथार्थ से नहीं, क्योंकि आकाश अखण्डद्रव्य है, उसमें भेद उपचार से माने जा सकते हैं। (ड.) सजातीय और विजातीय द्रव्यपर्याय सजातीय द्रव्यों के परस्पर मिलने से जो पर्याय उत्पन्न होती हैं, वे सजातीय द्रव्यपर्याय हैं, जैसे-समान वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि-आदि से बना स्कन्ध। इससे भिन्न विजातीय पर्याय हैं। (च) कारण-शुद्ध-पर्याय और कार्य-शुद्ध-पर्याय ___ स्वभावपर्याय के अन्तर्गत दो प्रकार की पर्यायें होती हैं- कारण-शुद्ध-पर्याय और 'कार्य-शुद्ध-पर्याय / पर्यायों में परस्पर कारण-कार्य-भाव होता है। जो स्वभाव-पर्याय कारणरूप होती हैं, वे कारण-शुद्ध-पर्याय हैं और जो स्वभाव- पर्याय कार्य-रूप होती हैं, वे कार्य-शुद्ध-पर्याय हैं, किन्तु यह कथन सापेक्ष रूप में समझना चाहिए, क्योंकि जो पर्याय किसी का कारण है, वही दूसरी का कार्य भी हो सकती है। इसी क्रम में, विभाव पर्यायों को भी कार्य-अशुद्ध-पर्याय या कारण-अशुद्ध- पर्याय भी माना जा सकता है।