________________ जैन धर्म एवं दर्शन-212 जैन-तत्त्वमीमांसा-64 अन्य भेद इस प्रकार हैं(ख) अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय पुनः, पर्याय दो प्रकार की होती हैं- 1. अर्थपर्याय और 2. व्यंजनपर्याय / एक ही पदार्थ की प्रतिक्षण परिवर्तित होने वाली क्रमभावी पर्यायों को अर्थपर्याय कहते हैं तथा पदार्थ की उसके विभिन्न प्रकारों एवं भेदों की जो पर्यायें होती हैं, उन्हें व्यंजनपर्याय कहते हैं। अर्थपर्याय सूक्ष्म एवं व्यंजनपर्याय स्थूल होती हैं। ज्ञातव्य है कि धवला (4/1/504/337/6) में द्रव्यपर्याय को ही व्यंजनपर्याय कहा गया है और गुणपर्याय को ही अर्थपर्याय भी कहा गया है। द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय की चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। यहाँ स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि व्यंजनपर्याय ही द्रव्यपर्याय और अर्थपर्याय ही गुणपर्याय हैं, तो फिर इन्हें पृथक-पृथक क्यों बताया गया है; इसका उत्तर यह है कि प्रवाह की अपेक्षा से व्यंजनपर्याय चिरकालिक भी होती है, जैसे जीव की चेतन पर्यायें सदैव बनी रहती हैं, चाहे चेतन अवस्थाएँ बदलती रहें, इसके विपरीत, अर्थपर्यायें गणों और उनके अनेक अंशों की अपेक्षा से प्रति समय बदलती रहती हैं। व्यंजनपर्याय सामान्य है, जैसे जीवों की चेतना-पर्यायें, जो सभी जीवों में और सभी कालों में पाई जाती हैं। वे द्रव्य की सहभावी पर्यायें हैं और अर्थपर्याय विशेष हैं, जैसे किसी व्यक्ति विशेष की काल-विशेष में होने वाली क्रोध आदि की क्रमिक अवस्थाएँ। अर्थपर्याय क्रमभावी हैं, वे क्रमिक रूप से काल-क्रम में घटित होती रहती हैं, अतः कालकृत भेद के आधार पर उन्हें द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय से पृथक् कहा गया है। (ग) ऊर्ध्वपर्याय और तिर्यकपर्याय __ पर्याय को ऊर्ध्व-पर्याय एवं तिर्यक-पर्याय के रूप में भी वर्गीकृत किया जा सकता है, जैसे- भूत, भविष्य और वर्तमान के अनेक मनुष्यों की अपेक्षा से मनुष्यों की जो अनन्त पर्यायें होती हैं, वे तिर्यक-पर्याय कही जाती हैं, जबकि एक ही मनुष्य के त्रिकाल में प्रतिक्षण होने वाले पर्याय-परिणमन को उर्ध्व-पर्याय कहा जाता है। तिर्यक्-अभेद में भेद ग्राही है और ऊर्ध्व-पर्याय-भेद में अभेद ग्राही है। यद्यपि पर्याय कही जाती हैं, जबकि एक ही मनुष्य के त्रिकाल में प्रतिक्षण होने वाले