________________ जैन धर्म एवं दर्शन-211 जैन-तत्त्वमीमांसा-63 है। द्रव्य में प्रतिक्षण पूर्व पर्याय का नाश या व्यय तथा उत्तरपर्याय का उत्पाद होता रहता है। उत्पाद और व्यय की घटना जिसमें आश्रित या घटित होती हैं, या जिसमें पर्यायें परिवर्तित होती हैं, वही द्रव्य है। जैनदर्शन के अनुसार, द्रव्य और पर्याय में कथचित् तादात्म्य इस अर्थ में है कि पर्याय से रहित होकर द्रव्य का कोई अस्तित्व ही नहीं है। द्रव्य की पर्याय बदलते रहने पर भी द्रव्य में एक क्षण के लिए भी ऐसा नहीं होता कि वह पर्याय से रहित हो। न तो पर्यायों से पृथक् होकर द्रव्य अपना अस्तित्व रख सकता है और न द्रव्य से पृथक् होकर पर्यायों का ही कोई अस्तित्व होता है। सत्तात्मक स्तर पर द्रव्य और पर्याय अलग-अलग सत्ताएँ नहीं हैं, वे तत्त्वतः अभिन्न हैं, किन्तु वैचारिक स्तर पर द्रव्य और पर्याय को परस्पर पृथक् माना जा सकता है। क्योंकि पर्याय उत्पन्न होती हैं और नष्ट होती हैं, जबकि द्रव्य बना रहता है, अतः वे द्रव्य से भिन्न भी हैं। जैन-आचार्यों के अनुसार, द्रव्य और पर्याय की यह कथंचित्- अभिन्नता और कथंचित्-भिन्नता वस्तु के अनेकांतिक स्वरूप की परिचायक हैं। पर्यायों के प्रकारों की आगमिक–आधारों पर चर्चा करते हुए द्रव्यानुयोग (पृ.38) में उपाध्याय श्री कन्हैयालालजी म.सा. 'कमल' लिखते हैं कि प्रज्ञापनासूत्र में पर्याय के दो भेद प्रतिपादित हैं-1. जीव-पर्याय और 2. अजीव-पर्याय। ये दोनों प्रकार की पर्यायें अनन्त होती हैं। जीव-पर्याय किस प्रकार अनन्त होती है, इसका समाधान करते हुए पूर्व में कहा गया है कि नैरयिक, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिर्यंचयोनिक और मनुष्य से सभी जीव असंख्यात् हैं, किन्तु वनस्पतिकायिक और सिद्ध जीव तो अनन्त हैं, इसलिए जीव-पर्यायें अनन्त हैं। इसी प्रकार, अजीव पुद्गल आदि रूप हैं, पुनः पुद्गल स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु रूप होता है, साथ ही उसमें वर्ण, गन्ध, रूप और स्पर्श गुण होते हैं, फिर इनके भी अनेक अवान्तर-भेद होते हैं, साथ ही प्रत्येक गुण के भी अनेक अंश होते हैं, अतः इन विभिन्न अंशों और उनके विभिन्न संयोगों की अपेक्षा से पुदगल आदि अजीव द्रव्यों की भी अनन्त पर्यायें होती हैं, जिनका विस्तृत विवेचन प्रज्ञापनासूत्र के पर्याय-पद में किया गया है। पर्यायों के