________________ जैन धर्म एवं दर्शन-216 जैन-तत्त्वमीमांसा-68 जानता है, तो फिर इसका अर्थ है कि सर्वज्ञ के ज्ञान में सभी द्रव्यों की सर्व पर्यायें क्रमबद्ध और नियत हैं, उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन सम्भव नहीं है, अर्थात् भवितव्यता को पुरुषार्थ के माध्यम से बदलने की संभावना नहीं है। जिसका जैसा पर्याय-परिणमन होना है, वह वैसा ही होगा। इस अवधारणा का एक अच्छा पक्ष यह है कि इसे मान लेने पर व्यक्ति भूत और भावी के सम्बन्ध में व्यर्थ के संकल्प-विकल्प से मुक्त रहकर समभाव में रह सकता है; दूसरे, उसमें कर्तव्य का मिथ्या अहंकार भी नहीं होता है, किन्तु इसका दुर्बल पक्ष यह है कि इसमें पुरुषार्थ के लिए अवकाश नहीं रहता है और व्यक्ति के पास अपने भविष्य को संवारने हेतु प्रयत्नों का अवकाश भी नहीं रह जाता है। क्रमबद्ध पर्याय की अवधारणा नियतिवाद की समर्थक है, अतः इसमें नैतिक-उत्तरदायित्व भी समाप्त हो जाता है। यदि व्यक्ति अपनी स्वतन्त्र इच्छा शक्ति से कुछ भी अन्यथा नहीं कर सकता है, तो उसे किसी भी अच्छे-बुरे कर्म के लिए उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता। यद्यपि इस सिद्धान्त के समर्थक जैनदर्शन के पंचकारणसमवाय के सिद्धान्त के आधार पर पुरुषार्थ की संभावना से इनकार नहीं करते हैं, किन्तु यदि उनके अनुसार पुरुषार्थ भी 'नियत' है, किन्तु नियत पुरुषार्थ वस्तुतः पुरुषार्थ नहीं होता है। जैन-कर्मसिद्धान्त के अनुसार, अपने पूर्वबद्ध कर्मों की सत्ता में रसघात, स्थितिघात अथवा अपवर्तन एवं उत्वर्तन होता है। अतः, पर्यायें क्रमबद्ध होते हुए भी पूर्व नियत नहीं हैं, साथ ही वे पुरुषार्थ की अवरोधक भी नहीं हैं। वे पुरुषार्थ का ही एक रूप हैं। जीव-तत्त्व आत्मा या जीवतत्त्व को पंच अस्तिकाय, षद्रव्य और नवतत्त्व- इन तीनों वर्ग के अन्तर्गत रखा जाता है / जीव का लक्षण उपयोग या चेतना माना गया है, इसीलिए इसे चेतन-द्रव्य भी कहा जाता है। उपयोग या चेतना के दो प्रकारों की चर्चा आगमों में भी मिलती है- निराकार-उपयोग और साकार-उपयोग। इन दोनों को क्रमशः दर्शन और ज्ञान भी कहा जाता है। निराकार-उपयोग, वस्तु के सामान्य स्वरूप का ग्रहण करने के कारण, दर्शन कहा जाता है और साकार- उपयोग, वस्तु के विशिष्ट