________________ जैन धर्म एवं दर्शन-205 जैन-तत्त्वमीमांसा-57 अभिन्न हैं, वे परस्पर सापेक्ष हैं। गुण का स्वरूप एवं परिभाषा __द्रव्य को गुण और पर्यायों का आश्रय स्थल माना गया है। वस्तुतः, गुण द्रव्य के स्वभाव या स्व-लक्षण होते हैं। तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने 'द्रव्याश्रयानिर्गुणा गुणाः (5/40) कहकर यह बताया है कि गुण द्रव्य में रहते हैं, पर वे स्वयं निर्गुण होते हैं। गुण निर्गुण होते हैं- यह परिभाषा सामान्यतया आत्म-विरोधी-सी लगती है, किन्तु इस परिभाषा की मूलभूत दृष्टि यह है कि यदि हम गुण के भी गुण मानेंगे, तो अनावस्था-दोष होगा / गुण द्रव्य का स्व-लक्षण है, जबकि पर्याय द्रव्य का विकार है। गुण भी द्रव्य के समान ही अविनाशी है। द्रव्य जिसका परित्याग नहीं कर सकता है, वही गुण है। गुण वस्तु की सहभावी विशेषताओं का सूचक है। वे विशेषताएँ या लक्षण, जिनके आधार पर एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य से अलग किया जा सकता है, वे विशिष्ट गुण कहे जाते हैं। उदाहरण के रूप में, धर्म-द्रव्य का लक्षण गति में सहायक होना है, अधर्म-द्रव्य का लक्षण स्थिति में सहायक होना है। जो सभी द्रव्यों का अवगाहन करता है, उन्हें स्थान देता है, वह आकाश कहा जाता है। इसी प्रकार, परिवर्तन काल का लक्षण है और उपयोग (चेतना) जीव का लक्षण है। अतः, गुण वे हैं, जिनके आधार पर हम किसी द्रव्य को पहचानते हैं और उसका अन्य द्रव्य से पृथक्त्व स्थापित करते हैं, वे ही उसके गुण हैं। उत्तराध्ययनसूत्र (28/11-12) में जीव और पुद्गल के अनेक लक्षणों का भी चित्रण हुआ है। उसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य एवं उपयोग-ये छह जीव के लक्षण बताये गये हैं और शब्द, प्रकाश, अंधकार, प्रभा, छाया, आतप, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि को पुद्गल का लक्षण कहा गया है। ज्ञातव्य है कि द्रव्य और गुण विचार के स्तर पर ही अलग-अलग माने गये हैं, लेकिन अस्तित्व की दृष्टि से वे पृथक्-पृथक् सत्ताएँ नहीं हैं। गुणों के संदर्भ में हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि कुछ गुण सामान्य होते हैं और वे सभी द्रव्यों में पाए जाते हैं और कुछ गुण विशिष्ट होते हैं, जो कुछ ही द्रव्यों में पाए जाते हैं। चेतना आदि कुछ गुण ऐसे भी हैं, जो केवल जीवद्रव्य में पाये जाते हैं, अजीवद्रव्य में उनका अभाव होता है। दूसरे शब्दों में, कुछ गुण सामान्य