________________ जैन धर्म एवं दर्शन-204 जैन-तत्त्वमीमांसा-56 कहा जाता है। उसे इस प्रकार भी समझाया जा सकता है कि मृत्तिका अपने स्व-जातीय धर्म का परित्याग किये बिना घट आदि को उत्पन्न करती है। घट की उत्पत्ति में पिण्ड का विनाश होता है। जब तक पिण्ड विनष्ट नहीं होता, तब तक घट उत्पन्न नहीं होता, किन्तु इस उत्पाद और व्यय में भी मृत्तिका-लक्षण यथावत् बना रहता है। वस्तुतः, कोई भी द्रव्य अपने स्व-लक्षण, स्व-स्वभाव अथवा स्व-जातीय धर्म का परित्याग नहीं करता है। द्रव्य अपने गुण या स्व-लक्षण की अपेक्षा से नित्य होता है, क्योंकि स्व-लक्षण का त्याग सम्भव नहीं है। यह स्व-लक्षण ही वस्तु का नित्य-पक्ष होता है। स्व-लक्षण का त्याग किये बिना वस्तु जिन विभिन्न अवस्थाओं को प्राप्त होती है, वह पर्याय कहलाती हैं। परिवर्तनशील पर्याय ही द्रव्य का अनित्य-पक्ष है। इस प्रकार, हम यह कह सकते हैं कि द्रव्य अपने स्व-लक्षण या गुण की अपेक्षा से नित्य और अपनी पर्याय की अपेक्षा से अनित्य कहा जाता है। उदाहरण के रूप में, जीवद्रव्य अपने चैतन्य-गुण का कभी परित्याग नहीं करता, किन्तु अपने चेतना-लक्षण का परित्याग किये बिना वह देव, मनुष्य, पशु- इन विभिन्न योनियों को अथवा बालक, युवा, वृद्ध आदि अवस्थाओं को प्राप्त होता है। जिन गुणों का परित्याग नहीं किया जा सकता, वे ही गुण वस्तु के स्व-लक्षण कहे जाते हैं। जिन गुणों अथवा अवस्थाओं का परित्याग किया जा सकता है, वे पर्याय कहलाती हैं। पर्याय बदलती रहती हैं, किन्तु गुण वही बना रहता है। ये पर्याय भी दो प्रकार की कही गयी हैं- 1. स्वभाव-पर्याय और 2. विभाव-पर्याय। जो पर्याय या अवस्थाएं स्व-लक्षण के निमित्त से होती हैं, वे स्वभाव-पर्याय कहलाती हैं और जो अन्य निमित्त से होती हैं, वे विभाव-पर्याय कहलाती हैं। उदाहरण के रूप में, ज्ञान और दर्शन (प्रत्यक्षीकरण) सम्बन्धी विभिन्न अनुभूतिपरक अवस्थाएं आत्मा की स्वभाव-पर्याय हैं, क्योंकि वे आत्मा के स्व-लक्षण ‘उपयोग' से फलित होती हैं, जबकि क्रोध आदि कषाय भावकर्म के निमित्त से या दूसरों के निमित्त से होते हैं, अतः वे विभाव-पर्याय हैं, फिर भी इतना निश्चित है कि इन गुणों और पर्यायों का अधिष्ठान या उपादान तो द्रव्य स्वयं ही है। द्रव्य गुण और पर्यायों से