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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-203 जैन - तत्त्वमीमांसा-55 अनैकान्तिक-दृष्टि का पूर्ण परिचय नहीं देतीं, क्योंकि एक में द्रव्य और गुण में भेद माना गया है, तो दूसरी में अभेद, जबकि जैन-दृष्टिकोण भेद-अभेदमूलक है। उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र के सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ में ‘सत् द्रव्य लक्षणम् (5/29) कहकर सत् को द्रव्य का लक्षण माना है, जो अस्तित्वरूप है। जो अस्तित्त्ववान् है, वही द्रव्य है। इसी आधार पर यह कहा गया है कि जो त्रिकाल में अपने स्वभाव का परित्याग न करे, उसे ही सत् या द्रव्य कहा जा सकता है। तत्त्वार्थसूत्र (5/29) में उमास्वाति ने एक ओर द्रव्य का लक्षण सत् बताया, तो दूसरी ओर, सत् को उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक बताया, अतः द्रव्य को भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक कहा जा सकता है, साथ ही, उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र (5/38) में द्रव्य को परिभाषित करते हुए उसे गुण, पर्याय से युक्त भी कहा है। आचार्य कुंदकुंद ने ‘पंचास्तिकायसार' और 'प्रवचनसार' में इन्हीं दोनों लक्षणों को मिलाकर द्रव्य को परिभाषित किया है। पंचास्तिकायसार' (10) में वे कहते है- "द्रव्य सत लक्षण वाला है।" इसी परिभाषा को और स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार (95-96) में वे कहते हैं- “जो अपरित्यक्त स्वभाव वाला उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य से युक्त तथा गुण पर्याय सहित है, उसे द्रव्य कहा जाता है। इस प्रकार, कुंदकुंद ने द्रव्य की परिभाषा के सन्दर्भ में उमास्वाति के सभी लक्षणों को स्वीकार कर लिया है। तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति की विशेषता यह है कि उन्होंने 'गुण पर्यायवत् द्रव्यम्' कहकर जैनदर्शन के भेद-अभेदवाद को पुष्ट किया है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र में द्रव्य की यह परिभाषा भी वैशेषिक-सूत्र के द्रव्यगुणकर्मभ्योऽर्थान्तरं स सत्ता (1/2/8) नामक सूत्र के निकट ही सिद्ध होती है। उमास्वाति ने इस सूत्र में कर्म के स्थान पर पर्याय को रख दिया है। जैनदर्शन से सत् सम्बन्धी सिद्धान्त की चर्चा में हम यह स्पष्ट कर चुके हैं कि द्रव्य या सत्ता परिवर्तनशील होकर भी नित्य है। परिणमन- यह द्रव्य का आधारभूत लक्षण है, किन्तु इसकी प्रक्रिया में द्रव्य अपने स्वरूप का परित्याग नहीं करता है। स्व-स्वरूप का परित्याग किये बिना विभिन्न अवस्थाओं को धारण करने के कारण ही द्रव्य को नित्य कहा जाता है, किन्तु प्रतिक्षण उत्पन्न होने वाले और नष्ट होने वाले पर्यायों की अपेक्षा से उसे अनित्य
SR No.004420
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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