________________ जैन धर्म एवं दर्शन-202 जैन-तत्त्वमीमांसा-54 वैशिष्ट्य है। द्रव्य, गुण एवं पर्याय और उनका सह सम्बन्ध द्रव्य की परिभाषा : जैन-परम्परा में सत् को द्रव्य का लक्षण माना गया है, फिर भी उसमें सत् के स्थान पर 'द्रव्य' ही प्रमुख रहा है। आगमों में सत् के स्थान पर 'अस्तिकाय' और 'द्रव्य'- इन दो शब्दों का ही प्रयोग देखा गया है। जो अस्तिकाय हैं, वे द्रव्य ही हैं। सर्वप्रथम द्रव्य. की परिभाषा उत्तराध्ययनसूत्र में है। उसमें 'गुणानां आसवो दव्यो' (28/6) कहकर गुणों के आश्रय-स्थल को द्रव्य कहा गया है। इस परिभाषा में द्रव्य का सम्बन्ध गुणों से माना गया है, किन्तु इसके पूर्व गाथा में यह भी कहा गया है कि द्रव्य, गुण और पर्याय-सभी को जाननेवाला ज्ञान है (उत्तराध्ययनसूत्र 28/5) / उसमें यह भी माना गया है कि गुण द्रव्य के आश्रित रहते हैं और पर्याय गुण और द्रव्य-दोनों के आश्रित रहती है। इस . परिभाषा का तुलनात्मक-दृष्टि से विचार करने पर हम यह पाते हैं कि इसमें द्रव्य, गुण और पर्याय में आश्रय-आश्रयी-सम्बन्ध माना गया है। यह परिभाषा भेदवादी न्याय और वैशेषिक दर्शन के निकट है। द्रव्य की दूसरी परिभाषा 'गुणानां समूहो दव्वो' के रूप में भी की गयी है। इस परिभाषा का समर्थन तत्त्वार्थसत्र की 'सर्वार्थसिद्धि नामक टीका (2/2/प. 267/4) में आचार्य पूज्यपाद ने किया है। इसमें द्रव्य को 'गुणों का समुदाय' कहा गया है। जहाँ प्रथम परिभाषा द्रव्य और गुण में आश्रय-आश्रयी-सम्बन्ध के द्वारा भेद का संकेत करती है, वहाँ यह दूसरी परिभाषा गुण और द्रव्य में अभेद स्थापित करती है। तुलनात्मक-दृष्टि से विचार करने पर यह ज्ञात होता है कि प्रथम परिभाषा बौद्ध-परम्परा के द्रव्य-लक्षण के अधिक समीप प्रतीत होती है, क्योंकि दूसरी परिभाषा के अनुसार गुणों से पृथक् द्रव्य का कोई अस्तित्व नहीं माना गया। इस द्वितीय परिभाषा में गुणों के समुदाय या स्कन्ध को ही द्रव्य कहा गया है। यह परिभाषा गुणों से पृथक् द्रव्य की सत्ता न मानकर गुणों के समुदाय को ही द्रव्य मान लेती है। इस प्रकार, यद्यपि ये दोनों ही परिभाषाएं जैन-चिन्तन-धारा में ही विकसित हैं, किन्तु एक पर वैशेषिक–दर्शन का और दूसरी पर बौद्धदर्शन का प्रभाव है। ये दोनों परिभाषाएं जैनदर्शन की