________________ जैन धर्म एवं दर्शन-206 जैन-तत्त्वमीमांसा-58 और कुछ गुण विशिष्ट होते हैं। सामान्य गुणों के आधार पर जाति या वर्ग की पहचान होती है, वे द्रव्य या वस्तुओं का एकत्व प्रतिपादित करते हैं, जबकि विशिष्ट गुण एक द्रव्य का दूसरे से अन्तर स्थापित करते हैं। गुणों के सन्दर्भ में चर्चा करते हुए हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अनेक गुण सहभागी रूप से एक ही द्रव्य में रहते हैं, इसीलिए जैनदर्शन में वस्तु . को अनन्तधर्मात्मक कहा गया है। गुणों के सम्बन्ध में एक अन्य विशेषता यह है कि वे द्रव्य–विशेष की विभिन्न पर्यायों में भी बने रहते हैं। . द्रव्य और गुण का भेदाभेद ___ कोई भी द्रव्य गुण से रहित नहीं होता। द्रव्य और गुण का विभाजन मात्र वैचारिक-स्तर पर किया जाता है, सत्ता के स्तर पर नहीं। गुण से रहित होकर न तो द्रव्य की कोई सत्ता होती है, न द्रव्य से रहित गुण की, अतः सत्ता के स्तर पर गुण और द्रव्य में अभेदं है, जबकि वैचारिक-स्तर पर दोनों में भेद किया जा सकता है। ... जैसा कि हमने पूर्व में सूचित किया है कि द्रव्य और गुण अन्योन्याश्रित हैं। द्रव्य के बिना गुण का अस्तित्व नहीं है और गुण के बिना द्रव्य का अस्तित्व नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र (5/40) में गुण की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि “स्व-गुण को छोड़कर जिनका अन्य कोई गुण नहीं होता अर्थात् जो निर्गुण है, वही गुण है।" द्रव्य और गुण के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर जैन-परम्परा में हमें तीन प्रकार के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। आगम-ग्रंथों में द्रव्य और गुण में आश्रय-आश्रयी- भाव माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र (28/6) में द्रव्य को गुण का आश्रय-स्थान माना गया है। उत्तराध्ययन-सूत्रकार के अनुसार, गुण द्रव्य में रहते हैं अर्थात् द्रव्य गुणों का आश्रय-स्थल है, किन्तु यहाँ यह आपत्ति हो सकती है कि जब द्रव्य और गण की भिन्न-भिन्न सत्ता ही नहीं है, तो उनमें आश्रय-आश्रयी-भाव किस प्रकार होगा? वस्तुतः, द्रव्य और गुण के सम्बन्ध को लेकर किया गया यह विवेचन मूलतः वैशेषिक-परम्परा के प्रभाव का परिणाम है। जैनों के अनुसार, सिद्धान्ततः आश्रय-आश्रयी-भाव उन्हीं दो तत्त्वों में हो सकता है, जो एक-दूसरे से पृथक् सत्ता रखते हैं। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर