________________ जैन धर्म एवं दर्शन-199 जैन-तत्त्वमीमांसा-51 निष्क्रिय है, अवीर्य है, इसका विकास स्वभावतः होता रहता है। विभिन्न योनियों में होता हुआ यह जीवात्मा अपना विकास करता है और निर्वाण या मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। लेकिन, ऐसा प्रतीत होता है कि नैतिक-दृष्टि से वह व्यक्ति को अपनी स्थिति के अनुसार कर्त्तव्य करने का उपदेश देता था, अन्यथा वह स्वयं भी नग्न रहना आदि देह-खण्डन को क्यों स्वीकार करता? जिस प्रकार बाद में गीता में अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार कर्तव्य करने का उपदेश दिया गया था। वर्तमान युग में ब्रेडले ने (Mystation and its dutil) समाज में अपनी स्थिति के अनुसार कर्त्तव्य करने के नैतिक-सिद्धान्त को प्रतिपादित किया, उसी प्रकार वह छ: अभिजातियों (वर्गों) को उनकी स्थिति के अनुसार कर्तव्य करने का उपदेश देता होगा और यह मानता होगा कि आत्मा अपनी अभिजातियों के कर्त्तव्य का पालन करते हुए स्वतः विकास की क्रमिक गति से आगे बढ़ता रहता है। . पारमार्थिक-दृष्टि से या तार्किक-दृष्टि से नियतिवादी विचारणा का चाहे कुछ मूल्य रहा हो, लेकिन नैतिक-विवेचना में नियतिवाद अधिक सफल नहीं हो पाया। नैतिक-विवेचना में इच्छा-स्वातन्त्र्य (Free-Will) की धारणा आवश्यक है, जबकि नियतिवाद में उसका कोई स्थान नहीं रहता है, फिर दार्शनिक दृष्टि से भी नियतिवादी तथा स्वतः विकासवादी धारणाएं भी निर्दोष हों- ऐसी बात भी नहीं है। नित्यकूटस्थ-सूक्ष्म-आत्मवाद बुद्ध का समकालीन एक विचारकं पकुधकच्चायन आत्मा को नित्य और कूटस्थ (अक्रिय) मानने के साथ ही उसे सूक्ष्म मानता था। 'ब्रह्मजालसुत्त' के अनुसार उसका दृष्टिकोण इस प्रकार का था - सात पदार्थ किसी के- बने हुए नहीं हैं (नित्य हैं), वे तो अवध्य कूटस्थ- अचल हैं। - जो कोई तीक्ष्ण शस्त्र से किसी का सिर काट डालता है, वह उसका प्राण नहीं लेता। बस इतना ही समझना चाहिए कि सात पदार्थों के बीच अवकाश में उसका शस्त्र घुस गया है। इस प्रकार, इस धारणा के अनुसार आत्मा नित्य और कूटस्थ तो थी ही, साथ ही सूक्ष्म और अछेद्य भी थी। पकुधकच्चायन की इस धारणा के