________________ जैन धर्म एवं दर्शन-198 जैन-तत्त्वमीमांसा-50 आत्मविकास एवं निर्वाण-प्राप्ति की धारणा को नहीं समझाया जा सकता था। ___ मक्खलीपुत्र गोशालक, जो आजीवक-सम्प्रदाय का प्रमुख थापूर्णकश्यप की आत्म–अक्रियतावाद की धारणा का तो समर्थक था, लेकिन अक्रिय-आत्मवाद के कारण वह आत्म-विकास की परम्परा को व्यक्त करने में असमर्थ था, अतः निम्न योनि से आत्म-विकास की उच्चतम स्थिति निर्वाण को प्राप्त करने के लिए उसने निष्क्रिय आत्म-विकासवाद के सिद्धान्त को स्थापित किया। सामान्यतया, उसके सिद्धान्त को नियंतिवाद किंवा भाग्यवाद कहा गया है, लेकिन मेरी दृष्टि में उस सिद्धान्त को निष्क्रिय आत्म-विकासवाद कहा जाना ही अधिक समुचित है। ___ ऐसा प्रतीत होता है कि गोशालक भी उस युग का प्रबुद्ध व्यक्ति था, उसने अपने आजीवक-सम्प्रदाय में पूर्णकश्यप के सम्प्रदाय को भी शामिल कर लिया था। प्रारम्भ में उसने भगवान् महावीर के साथ अपनी साधना-पद्धति को प्रारम्भ किया था, लेकिन उनसे वैचारिक मतभेद होने पर उसने पूर्णकश्यप के सम्प्रदाय से मिलकर आजीवक-सम्प्रदाय स्थापित कर लिया होगा, जिसका दर्शन एवं सिद्धान्त पूर्णकश्यप की धारणाओं से. प्रभावित थे, तो साधना-मार्ग का बाह्य- स्वरूप महावीर की साधना-पद्धति से प्रभावित था। बौद्ध-त्रिपिटक एवं जैनागम-दोनों में ही उसकी विचारणा का कुछ स्वरूप प्राप्त होता है। यद्यपि उसका प्रस्तुतिकरण एक विरोधी पक्ष के द्वारा हुआ है, यह तथ्य ध्यान में रखना होगा। . ___गोशालक की विचारणा का स्वरूप पालि आगम में निम्नानुसार है हेतु के बिना- प्राणी अपवित्र होता है, हेतु के बिना- प्राणी शुद्ध होते हैं- पुरुष की सामर्थ्य से कुछ नहीं होता- सर्व सत्व सर्व प्राणी, सर्वभूत, सर्वजीव, अवश, दुर्बल, निवीर्य हैं, वे नियति (भाग्य), संगति एवं स्वभाव के कारण परिणित होते हैं। इसके आगे उसकी नैतिकता की धारणा को पूर्वोक्त प्रकार से भ्रष्ट रूप में उपस्थित किया गया है, जो विश्वसनीय नहीं मानी जा सकती। उपर्युक्त आधार पर उसकी धारणा का सार यही है कि आत्मा