________________ जैन धर्म एवं दर्शन-197 जैन-तत्त्वमीमांसा-49 को प्र.ति का परिणाम मानता है। आत्मा इस सबसे प्रभावित नहीं होती है। वह यह भी नहीं मानता है कि आत्मा को नष्ट किया जा सकता है। आत्मा बन्धन में नहीं आता, वरन् प्र.ति ही प्र.ति को बांधती है, अतः शुभाशुभ कार्यों का प्रभाव भी आत्मा पर नहीं पड़ता। इस प्रकार, पूर्णकश्यप का दर्शन कपिल के दर्शन का पूर्ववर्ती था। इसी प्रकार, गीता में भी पूर्णकश्यप के इस आत्म–अक्रियवाद की प्रतिध्वनि यत्र-तत्र सुनाई देती है, जो सांख्यदर्शन के माध्यम से उस तक पहुंची थी। स्थानाभाव से हम यहाँ उन सब प्रमाणों को प्रस्तुत करने में असमर्थ हैं। पाठकगण उल्लिखित स्थानों पर उन्हें देख सकते हैं। ___ उपर्युक्त संदर्भो के आधार पर बौद्ध-साहित्य में प्रस्तुत पूर्णकश्यप के दृष्टिकोण को एक सही दृष्टिकोण से समझा जा सकता है, फिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उपर्युक्त आत्म-अक्रियवाद की धारणा नैतिक-सिद्धान्तों के स्थापन में तार्किक-दृष्टि से उपयुक्त नहीं ठहरती है। यदि आत्मा अक्रिय है, वह किसी क्रिया का कर्ता नहीं है, तो फिर वह शुभाशुभ कार्यों का उत्तरदायी भी नहीं माना जा सकता है। स्वयं प्र. ति भी चेतना एवं शुभाशुभ के विवेक के अभाव में उत्तरदायी नहीं बनती। इस प्रकार, आत्म-अक्रियवाद के सिद्धान्त में उत्तरदायित्व की धारणा को अधिष्ठित नहीं किया जा सकता और उत्तरदायित्व के अभाव में नैतिकता, कर्तव्य, धर्म आदि का मूल्य शून्यवत् हो जाता है। इस प्रकार, आत्म–अक्रियतावाद सामान्य बुद्धि की दृष्टि से एवं नैतिक-नियमों के स्थापन की दृष्टि से अनुपयोगी ठहरता है, फिर भी दार्शनिक-दृष्टि से इसका कुछ मूल्य है, क्योंकि स्वभावतया आत्मा को अक्रिय माने बिना मोक्ष एवं निर्वाण की व्याख्या सम्भव नहीं थी। यही कारण था कि आत्म–अक्रियतावाद या कूटस्थ-नित्य-आत्मवाद का प्रभाव दार्शनिक-विचारणा पर बना रहा। निष्क्रिय आत्मविकासवाद एवं नियतिवाद . आत्म-अक्रियतावाद या कूटस्थ आत्मवाद की एक धारा नियतिवाद भी थी। यदि आत्मा अक्रिय है एवं कूटस्थ है, तो पुरुषार्थवाद के द्वारा