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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-196 जैन- तत्त्वमीमांसा-48 समर्थक हैं। जिन विचारकों ने आत्मा को कूटस्थ माना है, उन्होंने उसे नित्य भी माना है, अतः हमने भी अपने विवेचन हेतु नित्य-आत्मवाद और कूटस्थ-आत्मवाद- दोनों को समन्वित रूप से एक ही साथ रखा है। महावीर के समकालीन कूटस्थ-नित्य आत्मवाद के प्रतिनिधि पूर्णकश्यप थे। पूर्णकश्यप के सिद्धान्तों का चित्रण बौद्ध-साहित्य में इस प्रकार से है- अगर कोई क्रिया करे, कराये, काटे, कटवाये, कष्ट दे या दिलाये, चोरी करे, प्राणियों को मार डाले, परदार गमन करे या असत्य बोले, तो भी उसे पाप नहीं। तीक्ष्ण धार वाले चक्र से यदि कोई इस संसार के प्राणियों के माँस का ढेर लगा दे, तो भी उसे कोई पाप नहीं है, दोष नहीं है- दान, धर्म और सत्य-भाषण से कोई पुण्य प्राप्ति नहीं होती। इस धारणा को देखकर सहज ही शंका होती है कि इस प्रकार का उपदेश देने वाला कोई यशस्वी, लोकसम्मानित व्यक्ति नहीं हो सकता, वरन् कोई धूर्त होगा, लेकिन पूर्णकश्यप एक लोकपूजित शास्ता थे, अतः यह निश्चित है कि ऐसा अनैतिक दृष्टिकोण उनका नहीं हो सकता, यह उनके आत्मवाद का नैतिक-फलित होगा, जो विरोधी रन्टकोण वाले लोगों द्वारा प्रस्तुत किया गया है, फिर भी इसमें इतनी सत्यता अवश्य होगी कि पूर्णकश्यप आत्मा को अक्रिय मानते थे। वस्तुतः, उनकी आत्म–अक्रियता की धारणा का उपर्युक्त निष्कर्ष निकालकर उनके विरोधियों ने उनके मत को विकृत रूप में प्रस्तुत किया है। __ ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्णकश्यप के इस आत्म-अक्रियवाद को उसके पश्चात् कपिल के सांख्यदर्शन और भगवद्गीता में भी अपना लिया गया था। कपिल और भगवद्गीता का काल लगभग 400 ई.पू. माना जाता है और इस आधार पर यह माना जा सकता है कि ये दर्शन पूर्णकश्यप के आत्म–अक्रियवाद से अवश्य प्रभावित हुए होंगे। कपिल के दर्शन में आत्म–अक्रियवाद के साथ ही ईश्वर का अभाव इस बात का सबल प्रमाण है कि वह किसी अवैदिक-श्रमण- परम्परा के दर्शन से प्रभावित था और वह दर्शन पूर्णकश्यप का आत्म–अक्रियवाद का दर्शन ही होगा, क्योंकि उसमें भी ईश्वर के लिए कोई स्थान नहीं था। सांख्य- दर्शन भी आत्मा को त्रिगुणयुक्त प्र.ति से भिन्न मानता है और मारना, मरवाना आदि सभी
SR No.004420
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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