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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-195 जैन-तत्त्वमीमांसा-47 अध्ययन की 18 वीं गाथा में भी विवेचन प्राप्त होता है, जहाँ यह बताया गया कि यह आत्मा शरीर में उसी प्रकार रहती है, जैसे तिल में तेल, अरणी में अग्नि या दूध में घृत रहता है और इस शरीर के नष्ट हो जाने के साथ ही वह नष्ट हो जाती है। __ औपनिषदिक-साहित्य में कठोपनिषद की प्रथम वल्ली के अध्याय1 के 20वें श्लोक में नचिकेता भी यह रहस्य जानना चाहता है कि आत्मनित्यतावाद और आत्म-अनित्यतावाद में कौनसी धारणा सत्य है और कौनसी असत्य? ___इस प्रकार, यह तो निर्धान्त रूप से सत्य है कि महावीर के समकालीन विचारकों में आत्म-अनित्यतावाद को मानने वाले कुछ विचारक थे, लेकिन वह अनित्यं-आत्मवाद भौतिक-आत्मवाद नहीं, वरन् दार्शनिक-अनित्य-आत्मवाद था। उनके मानने वाले विचारक आधुनिक सुखवादी विचारकों के समान भौतिक- सुखवादी नहीं थे, वरन् वे आत्म-शान्ति एवं आसक्तिनाश या तृष्णाक्षय के हेतु प्रयासशील थे। . ऐसा प्रतीत होता है कि अजित का दर्शन और धर्म (नैतिकता) बौद्धदर्शन एवं धर्म की पूर्व- कड़ी था। बौद्धों ने उसके दर्शन की जो आलोचना की थी अथवा उसके दर्शन के जो नैतिक-निष्कर्ष प्रस्तुत किये थे कि दुष्कृत एवं सुकृत कर्मों का विपाक नहीं हैं, वे एकान्ततः सत्य नहीं हैं, यही आलोचना तो काल-क्रम में बौद्ध- आत्मवाद को कृतप्रणाश एवं अकृत-कर्मभोग के दोष से युक्त कहकर हेमचन्द्राचार्य ने प्रस्तुत की। . अनित्य-आत्मवाद की धारणा नैतिक दृष्टि से उचित नहीं बैठती, क्योंकि उसके आधार पर कर्म-विपाक या कर्म-फल के सिद्धान्त को नहीं समझाया जा सकता। समस्त शुभाशुभ कर्मों का प्रतिफल तत्काल प्राप्त नहीं होता, अतः कर्म-फल की धारणा के लिए नित्य-आत्मवाद की ओर आना होता है। दूसरे, अनित्य आत्मवाद की धारणा में पुण्य-संचय, परोपकार, दान आदि के नैतिक- आदर्शों का भी कोई अर्थ नहीं रह जाता है। नित्यकूटस्थ आत्मवाद . वर्तमान दार्शनिक-परम्पराओं में भी अनेक इस सिद्धान्त के समर्थक हैं कि आत्मा कूटस्थ (निष्क्रिय) एवं नित्य है, सांख्य और वेदान्त भी इसके
SR No.004420
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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