________________ जैन धर्म एवं दर्शन-194 जैन-तत्त्वमीमांसा-46 था। उसका यह कहना– “यह लोक नहीं, परलोक नहीं, माता-पिता नहीं, देवता नहीं...' केवल इसी अर्थ का द्योतक है कि इन सभी की शाश्वत सत्ता नहीं है, सभी अनित्य हैं। वह आत्मा को भी अनित्य मानता था और इसी आधार पर यह कहा गया कि उसकी नैतिक-धारणा में सुकृत और दुष्कृत कर्मों का विपाक नहीं। __ पश्चिम में यूनानी- दार्शनिक हेराक्लिटक्स (535 ई.पू.) भी इसी का समकालीन था और वह भी अनित्यवादी ही था। ... सम्भवतः, अजित भी नित्य-आत्मवाद के आधार पर नैतिकता की धारणा को स्थापित करने में उत्पन्न होने वाली दार्शनिक-कठिनाईयों से अवगत था, क्योंकि नित्य-आत्मवाद के आधार पर हिंसा की बुराई को समाप्त नहीं किया जा सकता। यदि आत्मा नित्य है, तो फिर हिंसा किसकी? अतः अजित ने यज्ञ, याग एवं युद्ध-जनित हिंसा से मानव-जाति . को मुक्त करने के लिए अनित्य-आत्मवाद का उपदेश दिया होगा। . साथ ही, ऐसा भी प्रतीत होता है कि वह तृष्णा और आसक्ति से उत्पन्न होने वाले सांसारिक-क्लेशों से भी मानव-जाति को मुक्त करना चाहता था और इसी हेतु उसने गृह-त्याग और देह-दण्डन, जिससे आत्म-सुख और भौतिक-सुख की विभिन्नता को समझा जा सके, को भी आवश्यक माना था। इस प्रकार, अजित का दर्शन आत्म-अनित्यवाद का दर्शन है और उसकी नैतिकता है- आत्म-सुख (नइरमबजपअम च्समेंनतम) की उपलब्धि। सम्भवतः, ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्ध ने अपने अनात्मवादी-दर्शन के निर्माण में अजित का यह अनित्य-आत्मवाद अपना लिया था और उसकी नैतिक-धारणा में से देह-दण्डन की प्रणाली को समाप्त कर दिया था। यही कारण है कि अजित की यह दार्शनिक-परम्परा बुद्ध की दार्शनिक-परम्परा के प्रारम्भ होने पर विलुप्त हो गई। बुद्ध के दर्शन ने अजित के अनित्यवादी आत्म-सिद्धान्त को आत्मसात् कर लिया और उसकी नैतिक-धारणा को परिष्कृत कर उसे ही एक नये रूप में प्रस्तुत कर दिया। अनित्य-आत्मवाद के सम्बन्ध में जैनागम उत्तराध्ययन के 14 वें