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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-193 जैन-तत्त्वमीमांसा-45 आत्मवादों के वर्गीकरण में मुख्यतः एक स्थूल दृष्टि रखी गई है और इसी हेतु कूटस्थआत्मवाद, नियतिवाद को एवं परिणामी आत्मवाद और पुरुषार्थवाद को महावीर के आत्मवाद का मुख्य अंग मान लिया गया है। फिर भी, महावीर का आत्म-दर्शन समन्वयात्मक है, अतः उनके आत्म-दर्शन को एकान्त रूप से उस वर्ग में नहीं रखा जा सकता है। अनित्य-आत्मवाद महावीर के समकालीन विचारकों में इस अनित्यात्मवाद का प्रतिनिधित्व अजितकेशकम्बल करते हैं। इस धारणा के अनुसार, आत्मा या चैतन्य इस शरीर के साथ उत्पन्न होता है और इसके नष्ट हो जाने के साथ ही नष्ट हो जाता है। उनके दर्शन एवं नैतिक-सिद्धान्तों को बौद्ध-त्रिपिटक-साहित्य में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है - - दान, यज्ञ, हक्न व्यर्थ हैं, सुकृत-दुष्कृत कर्मों का फल विपाक नहीं। यह लोक-परलोक नहीं। माता-पिता नहीं, देवता नहीं .... | आदमी चार महाभूतों का बना है, जब मरता है, तब (शरीर की) पृथ्वी पृथ्वी में, पानी पानी में, आग आग में और वायु वायु में मिल जाती है...... दान मूरों का उपदेश है.... मूर्ख हो चाहे पण्डित, शरीर छोड़ने पर उच्छिन्न हो जाते हैं। __बाह्य-रूप से देखने पर अर्जित की यह धारणा स्वार्थ-सुखवाद की नैतिक-धारणा के समान प्रतीत होती है और उसका दर्शन या आत्मवाद भौतिकवादी परिलक्षित होता है, लेकिन पुनः यहाँ यह शंका उपस्थित होती है कि यदि अजितकेशकम्बल नैतिक-धारणा में सुखवादी और उनका दर्शन भौतिकवादी था, तो फिर वह स्वयं साधना-मार्ग और देह-दण्डन के पथ का अनुगामी क्यों था, उसने किस हेतु श्रमणों एवं उपासकों का संघ बनाया था। यदि उसकी नैतिकता भोगवादी थी, तो उसे स्वयं संन्यास-मार्ग का पथिक नहीं बनना था, न उसके संघ में संन्यासी या गृहत्यागी-वर्ग का स्थान ही होना था। . सम्भवतः, वस्तुस्थिति ऐसी प्रतीत होती है कि अजित दार्शनिक-दृष्टि से अनित्यवादी था, जगत् की परिवर्तनशीलता पर ही उसका जोर था। वह लोक, परलोक, देवता, आत्मा आदि किसी भी तत्त्व को नित्य नहीं मानता
SR No.004420
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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