________________ जैन धर्म एवं दर्शन-192 जैन-तत्त्वमीमांसा-44 वह उन विचारकों की नैतिक-विचारणा नहीं है, वरन् उनके आत्मवाद या अन्य दार्शनिक- मान्यताओं के आधार पर निकाला हुआ नैतिक-निष्कर्ष है, जो विरोधी पक्ष के द्वारा प्रस्तुत किया गया है। जैनागमों, जैसे- सूत्र.तांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र), उत्तराध्ययन आदि में भी कुछ ऐसे स्थल हैं, जिनके आधार पर तत्कालीन आत्मवादों को प्रस्तुत किया जा सकता है। वैदिक- साहित्य में प्राचीनतम उपनिषद् छान्दोग्य और बृहदारण्यक हैं, उनमें भी तत्कालीन आत्मवादों के सम्बन्ध में कुछ जानकारी उपलब्ध होती है। कठोपनिषद एवं गीता में भी इन विभिन्न आत्मवादी धारणाओं का प्रभाव यत्र-तत्र यथेष्ट रूप में देखने को मिल सकता है। .. विस्तारभय से यहाँ उक्त सभी ग्रन्थों के विभिन्न संकेतों के आधार पर उनसे प्रतिफलित होने वाले आत्मवादों की विचारणा सम्भव नहीं है, अतः हम यहाँ कुछ आत्मवादों का वर्गीत रूप में मात्र संक्षिप्त अध्ययन ही करेंगे। इनका विस्तृत और पूर्ण अध्ययन तो स्वतन्त्र गवेषणा का विषय है। इस दृष्टि से हमारे अध्ययन में निम्न वर्गीकरण सहायक हो सकता है1- नित्य या शाश्वत आत्मवाद, 2- अनित्य-आत्मवाद, उच्छेद-आत्मवाद, या देहात्मवाद, 3- कूटस्थ-आत्मवाद, अक्रिय-आत्मवाद या नियतिवाद, 4- परिणामी आत्मवाद, आत्म-कर्तृत्ववाद या पुरुषार्थवाद, 5- सूक्ष्म-आत्मवाद, 6- विभु-आत्मवाद, 7- अनात्मवाद, 8- सर्व-आत्मवाद या ब्रह्मवाद। प्रस्तुत निबन्ध में उपर्युक्त सभी आत्मवादों का विवेचन सम्भव नहीं है, दूसरे, अनात्मवाद और सर्व आत्मवाद के सिद्धान्त क्रमशः बौद्ध और वेदान्त-परम्परा में विकसित हुए हैं, जो काफी विस्तृत हैं, साथ ही लोक-प्रसिद्ध हैं, अतः उनका विवेचन यहाँ प्रस्तुत नहीं किया गया है। परिणामी आत्मवाद का सिद्धान्त स्वतन्त्र रूप से जैनों के अतिरिक्त किसका था, यह ज्ञात नहीं हो सका। प्रस्तुत प्रयास में इन विभिन्न