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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-200 जैन-तत्त्वमीमांसा-52 तत्त्व उपनिषदों तथा गीता में भी पाये जाते हैं। उपनिषदों में आत्मा को जौ, सरसों या चावल के दाने से सूक्ष्म माना गया है तथा गीता में उसे अछेद्य, अबध्य कहा गया है। सूक्ष्म-आत्मवाद की धारणा भी दार्शनिक-दृष्टि से अनेक दोषों से पूर्ण है, अतः बाद में इस धारणा में काफी परिष्कार हुआ है। महावीर का आत्मवाद - यदि उपर्युक्त आत्मवादों का तार्किक-वर्गीकरण किया जाये, तो हम उनके छह वर्ग बना सकते हैं (1) अनित्य आत्मवाद या उच्छेद-आत्मवाद, (2) नित्य-आत्मवाद या शाश्वत-आत्मवाद, (3) कूटस्थ-आत्मवाद या निष्क्रिय-आत्मवाद एवं नियतिवाद, (4) परिणामी-आत्मवाद या कर्ता-आत्मवाद या पुरुषार्थवाद, (5) सूक्ष्म-आत्मवाद, (6) विभु-आत्मवाद (यही बाद में उपनिषदों का सर्वात्मवाद या ब्रह्मवाद बना है)। ____ महावीर अनेकान्तवादी थे, साथ ही वे इन विभिन्न आत्मवादों की दार्शनिक एवं नैतिक-कमजोरियों को भी जानते रहे होंगे, अतः उन्होंने अपने आत्मवाद को इनमें से किसी भी सिद्धान्त के साथ नहीं बांधा। उनका आत्मवाद इनमें से किसी भी एक वर्ग के अन्तर्गत नहीं आता, वरन् उनका आत्मवाद इन सबका एक सुन्दर समन्वय है। ___आचार्य हेमचन्द्र ने अपने वीतरागस्तोत्र में एकांतनित्य-आत्मवाद और एकान्त-अनित्य-आत्मवाद के दोषों का दिग्दर्शन कराते हुए बताया है कि वीतराग का दर्शन इन दोनों के दोषों से मुक्त है। विस्तारभय से यहाँ नित्य- आत्मवाद और अनित्य-आत्मवाद तथा कूटस्थ-आत्मवाद या अपरिणामी आत्मवाद के दोषों की विवेचना में न पड़कर हमें केवल यही देखना है कि महावीर ने इन विभिन्न आत्मवादों का किस रूप से समन्वय किया है (1) नित्यता- आत्मा अपने अस्तित्व की दृष्टि से सदैव रहता है
SR No.004420
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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