________________ जैन धर्म एवं दर्शन-188 जैन-तत्त्वमीमांसा-40 कालाणु अनन्त हैं। राजवार्तिक आदि दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में कालाणुओं को अन्योन्य प्रवेश से रहित पृथक-पृथक् असंचित दशा में लोकाकाश में स्थित माना गया है। किन्तु, कुछ श्वेताम्बर आचार्यों ने इस मत का विरोध करते हुए यह भी माना है कि कालद्रव्य एक एवं लोकव्यापी है, वह अणुरूप नहीं है, किन्तु ऐसी स्थिति में काल में भी प्रदेश-प्रचयत्व मानना होगा और प्रदेश-प्रचयत्व मानने पर वह भी अस्तिकाय-वर्ग के अन्तर्गत आ.जायेगा। इसके उत्तर में यह कहा गया कि तिर्यक्-प्रचयत्व का अभाव होने से काल अनस्तिकाय है। ऊर्ध्व-प्रचयत्व एवं तिर्यक-प्रचयत्व की चर्चा हम पूर्व में अस्तिकाय की चर्चा के अन्तर्गत कर चुके हैं। सूक्ष्मता की अपेक्षा से कालाणुओं की अपेक्षा आकाश-प्रदेश और आकाश-प्रदेश की अपेक्षा पुद्गल-परमाणु अधिक सूक्ष्म माने गये हैं। क्योंकि एक ही आकाश-प्रदेश में अनन्त पुद्गल-परमाणु समाहित हो सकते हैं, अतः वे सबसे सूक्ष्म हैं। इस प्रकार, परमाणु की अपेक्षा आंकाश-प्रदेश और आकाश- प्रदेश की अपेक्षा कालाणु स्थूल हैं। . संक्षेप में, कालद्रव्य में वर्तना-हेतुत्व के साथ-साथ अचेतनत्व, अमूर्त्तत्व, सूक्ष्मत्व आदि सामान्य गुण भी माने गये हैं। इसी प्रकार, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य- लक्षण, जो अन्य द्रव्य में हैं, वे भी कालद्रव्य में पाये जाते हैं। कालद्रव्य में यदि उत्पाद, व्यय लक्षण नहीं रहे, तो वह अपरिवर्तनशील द्रव्य होगा और जो स्वतः अपरिवर्तनशील हो, वह दूसरों के परिवर्तन में निमित्त नहीं हो सकेगा, किन्तु काल-द्रव्य का विशिष्ट लक्षण तो उसका वर्त्तना नामक गुण ही है, जिसके माध्यम से वह अन्य सभी द्रव्यों के पर्याय-परिवर्तन में निमित्त का कारण बनकर कार्य करता है। पुनः, यदि कालद्रव्य में ध्रौव्यत्व का अभाव मानेंगे, तो उसका द्रव्यत्व समाप्त हो जायेगा, अतः उसे स्वतन्त्र द्रव्य मानने पर उसमें उत्पाद, व्यय के साथ-साथ ध्रौव्यत्व भी मानना होगा। कालचक्र अर्द्धमागधी आगम-साहित्य में काल की चर्चा उत्सर्पिणी-काल और अवसर्पिणी-काल के रूप में भी उपलब्ध होती हैं। इनमें प्रत्येक के