________________ जैन धर्म एवं दर्शन-187 जैन-तत्त्वमीमांसा-39 भी इसी से होता है। जैन-परम्परा में व्यवहारकाल का आधार सूर्य या चंद्र की गति ही मानी गई है, साथ ही यह भी माना गया है कि यह व्यवहर-काल मनुष्य-क्षेत्र तक ही सीमित है। देवलोक आदि में इसका व्यवहार मनुष्य-क्षेत्र की अपेक्षा से ही है। मनुष्य-क्षेत्र में ही समय, आवलिका, घटिका, प्रहर, रात-दिन, पक्ष, मास, ऋत, अयन, संवत्सर, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी आदि का व्यवहार होता है। व्यक्तियों में बालक, युवा और वृद्ध अथवा नूतन, जीर्ण आदि का जो व्यवहार देखा जाता है, वह सब भी काल के ही कारण है, वासनाकाल, शिक्षाकाल, दीक्षाकाल आदि की अपेक्षा से भी काल के अनेक भेद किये जाते हैं, किन्त विस्तारभय से उन सबकी चर्चा यहाँ करना अपेक्षित नहीं है। इसी प्रकार, कर्मसिद्धान्त के सन्दर्भ में प्रत्येक कर्म-प्रकृति के सत्ताकाल आदि की भी चर्चा जैनागमों में मिलती है। . संख्या की दृष्टि से अधिकांश जैन-आचार्यों ने कालद्रव्य को एक नहीं, अपितु अनेक माना है। उनका कहना है कि धर्म, अधर्म, आकाश की तरह काल एक और अखण्ड द्रव्य नहीं हो सकता। काल-द्रव्य अनेक हैं, क्योंकि एक ही समय में विभिन्न व्यक्तियों में अथवा द्रव्यों में जो विभिन्न पर्यायों की उत्पति होती है, उन सबकी उत्पत्ति का निमित्त-कारण एक ही काल नहीं हो सकता, अतः कालद्रव्य को अनेक या असंख्यात-प्रदेशी द्रव्य मानना होगा। पुनः, प्रत्येक पदार्थ की भूत, भविष्य की अपेक्षा से अनन्त पर्यायें होती हैं और उन अनन्त पर्यायों के निमित्त अनन्त कालाणु होंगे, अतः कालाणु अनन्त माने गये हैं। यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि कालद्रव्य को असंख्य कहा गया, किन्तु कालाणु अनन्त माने गये- ऐसा क्यों.? इसका उत्तर यह है कि कालद्रव्य लोकाकाश तक सीमित है और उसकी इस सीमितता की अपेक्षा से उसे अनन्त-द्रव्य न कहकर असख्यात (ससीम) द्रव्य कहा गया, किन्तु जीव अनन्त है और उन अनन्त जीवों की भूत एवं भविष्य की अनन्त पर्यायें होती हैं, उन अनन्त पर्यायों में प्रत्येक का निमित्त एक कालाणु होता है, अतः कालाणु अनन्त माने गये। सामान्य अवधारणा यह है कि प्रत्येक आत्म-प्रदेशों, पुद्गल-परमाणु और आकाश-प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान कालाणु स्थित रहते हैं, अतः