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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-186 जैन-तत्त्वमीमांसा-38 प्रत्युत्तर में काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने वाले आचार्यों का प्रत्युत्तर यह है कि आकाश एक अखण्ड द्रव्य है, उसमे अलोकाकाश एवं लोकाकाशऐसे दो भेद किए जाते हैं, वे मात्र औपचारिक हैं। लोकाकाश में कालद्रव्य के निमित्त से होने वाला पर्याय-परिवर्तन सम्पूर्ण आकाशद्रव्य का ही पर्याय परिवर्तन है। अलोकाकाश और लोकाकाश-दोनों आकाशद्रव्य के ही अंश हैं, वे एक-दूसरे से पृथक् नहीं हैं। किसी भी द्रव्य के एक अंश में होने वाला परिवर्तन सम्पूर्ण द्रव्य का परिवर्तन माना जाता है; अतः लोकाकाश में जो पर्याय-परिवर्तन होता है, वह अलोकाकाश पर भी घटित होता है और लोकाकाश में पर्याय-परिवर्तन कालद्रव्य के निमित्त से होता है, अतः लोकाकाश और अलोकाकाश- दोनों के पर्याय-परिवर्तन का निमित्त कालद्रव्य ही है। ज्ञातव्य है कि लगभग सातवीं शताब्दी से काल का स्वतन्त्र द्रव्य होना सर्वमान्य हो गया। : __ जैन-दार्शनिकों ने काल को अचेतन, अमूर्त (अरूपी) तथा अनस्तिकाय- द्रव्य कहा है। इसका कार्य या लक्षण वर्तना माना गया है। विभिन्न द्रव्यों में जो पर्याय-परिवर्तन होता है, उसका निमित्त कारण कालद्रव्य होता है, यद्यपि उस पर्याय–परिणमन का उपादान-कारण तो स्वयं वह द्रव्य ही होता है, जिस प्रकार धर्म-द्रव्य जीव, पुद्गल आदि की स्वतःप्रसूत गति का निमित्त कारण है या जिस प्रकार बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था प्राणी की अपनी शारीरिक संरचना के परिणामस्वरूप ही घटित होती है, फिर भी उनमें निमित्त-कारण के रूप में काल भी अपना कार्य करता है। जैनाचार्यों ने स्वभाव, नियति, पुरुषार्थ, काल आदि जिस कारण पंचक की चर्चा की है, उनमें काल को भी एक महत्त्वपूर्ण घटक माना गया है। जैन-दार्शनिक-साहित्य में कालद्रव्य की चर्चा अनेक प्रकार से की गई है। सर्वप्रथम व्यवहारकाल और निश्चयकालऐसे काल के दो विभाग किये गये हैं, निश्चयकाल अन्य द्रव्यों की पर्यायों के परिवर्तन का निमित्त-कारण है। दूसरे शब्दों में, सभी द्रव्यों की वर्तना या परिणमन की शक्ति ही द्रव्यकाल या निश्चयकाल है। व्यवहारकाल को समय, आवलिका, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर आदि रूप कहा गया है। संसार में भूत, भविष्य और वर्तमान-सम्बन्धी जो काल-व्यवहार है, वह
SR No.004420
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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