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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-185 जैन-तत्त्वमीमांसा-37 पर्यायें हैं, वे ही काल हैं। इस मान्यता के विरोध में दूसरे पक्ष के द्वारा यह कहा गया कि अन्य द्रव्यों की पर्यायों से पृथक् काल स्वतन्त्र द्रव्य है, क्योंकि किसी भी पदार्थ में बाह्य-निमित्त अर्थात् अन्य द्रव्य के उपकार के बिना स्वतः ही परिणमन सम्भव नहीं होता है, जैसे-ज्ञान आत्मा का स्वलक्षण है, किन्तु ज्ञानरूप पर्यायें तो अपने ज्ञेय विषय पर ही निर्भर करती हैं। आत्मा को ज्ञान तभी हो सकता है, जब ज्ञान के विषय अर्थात् ज्ञेय वस्तुतत्त्व की स्वतन्त्र सत्ता हो, अतः अन्य सभी द्रव्यों के परिणमन के लिए किसी बाह्य-निमित्त को मानना आवश्यक है, उसी प्रकार, चाहे सभी द्रव्यों में पर्याय-परिवर्तन की क्षमता स्वतः हो, किन्तु उनके निमित्त-कारण के रूप में कालद्रव्य को स्वतन्त्र द्रव्य मानना आवश्यक है। यदि काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं माना जायेगा, तो पदार्थों के परिणमन (पर्याय-परिवर्तन) का कोई निमित्त-कारण नहीं होगा। परिणमन के निमित्त-कारण के अभाव में पर्यायों का अभाव होगा और पर्यायों के अभाव में द्रव्य का भी अभाव हो जायेगा, क्योंकि द्रव्य का अस्तित्व भी पर्यायों से पृथक् नहीं है। इस प्रकार सर्वशून्यता का प्रसंग आ जायेगा। अतः, पर्याय-परिवर्तन (परिणमन) के निमित्त कारण के रूप में काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानना ही होगा। काल को स्वतन्त्र तत्त्व मानने वाले दार्शनिकों के द्वारा इस तर्क के विरोध में यह प्रश्न उठाया गया कि यदि अन्य द्रव्यों के परिणमन (पर्याय-परिवर्तन) के हेतु के रूप में काल नामक स्वतन्त्र द्रव्य का मानना आवश्यक है, तो फिर अलोकाकाश में होने वाले पर्याय-परिवर्तन का हेतु (निमित्त-कारण) क्या है ? क्योंकि अलोकाकाश में तो आगम में काल-द्रव्य का अभाव माना गया है। यदि उसमें काल द्रव्य के अभाव में पर्याय-परिवर्तन सम्भव है, तो फिर लोकाकाश में भी अन्य द्रव्यों के पर्याय-परिवर्तन हेतु काल को स्वतन्त्रं द्रव्य मानना आवश्यक नहीं है। पुनः, अलोकाकाश में काल के अभाव में यदि पर्याय-परिवर्तन नहीं मानोगे, तो फिर पर्याय परिवर्तन के अभाव में आकाश-द्रव्य में द्रव्य का सामान्य लक्षण 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य' सिद्ध नहीं हो सकेगा और यदि अलोकाकाश में पर्याय-परिवर्तन माना जाता है, तो उस पर्याय- परिवर्तन का निमित्त काल तो नहीं हो सकता, क्योंकि वहाँ उसका अभाव है। इस तर्क के
SR No.004420
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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