________________ जैन धर्म एवं दर्शन-184 जैन-तत्त्वमीमांसा-36 का उल्लेख हुआ है- 1. कुछ विचारक काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानकर पर्याय-रूप मानते हैं। 2. कुछ विचारक उसे गुण मानते हैं। 3. कुछ विचारक उसे स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं। श्वेताम्बर-परम्परा में सातवीं शती तक काल के सम्बन्ध में उक्त तीनों विचारधाराएँ प्रचलित रहीं और श्वेताम्बर-आचार्य अपनी-अपनी मान्यतानुसार उनमें से किसी एक का पोषण करते रहे, जबकि दिगम्बर–आचार्यों ने एक मत से काल को स्वतन्त्र द्रव्य माना / जो विचारक काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानते थे, उनका तर्क यह था कि यदि धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव-द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायों (विभिन्न अवस्थाओं) में स्वतः ही परिवर्तित होते रहते हैं, तो फिर काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने की क्या आवश्यकता है? आगम में भी जब भगवान् महावीर से यह पूछा गया कि काल क्या है ? तो इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि काल जीव-अजीवमय है, अर्थात जीव और अजीव की पर्यायें ही काल हैं। विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है कि वर्तना अर्थात् परिणमन या परिवर्तन से भिन्न कोई कालद्रव्य नहीं है। इस प्रकार, जीव और अजीव द्रव्य की परिवर्तनशील पर्याय को ही काल कहा गया है। कहीं-कहीं काल को पर्यायरूप द्रव्य कहा गया है। इन सब विवरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि काल कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है। चूँकि आगम में जीव-काल और अजीव-काल- ऐसे काल के दो वर्गों के उल्लेख मिलते हैं, अतः कुछ जैन-विचारकों ने यह माना कि जीव और अजीव-द्रव्यों की पर्यायों से पृथक कालद्रव्य का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। प्राचीन स्तर के आगमों में सर्वप्रथम उत्तराध्ययनसूत्र में काल का स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में उल्लेख पाया जाता है। जैसा कि हम पूर्व में संकेत कर चुके हैं कि न केवल उमास्वाति के युग तक अर्थात् ईसा की तृतीय-चतुर्थ शताब्दी तक, अपितु चूर्णिकाल अर्थात् ईसा की सातवीं शती तक, काल स्वतन्त्र द्रव्य है या नहीं - इस प्रश्न पर जैन-दार्शनिकों में मतभेद था, इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यमान् पाठ में उमास्वाति को यह उल्लेख करना पड़ा कि कुछ विचारक काल को भी द्रव्य मानते हैं (कालश्चेत्ये-तत्त्वार्थसूत्र 5/38) / इसका फलितार्थ यह भी है कि उस युग में कुछ जैन-दार्शनिक काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानते थे। इनके अनुसार, सर्व द्रव्यों की जो