________________ जैन धर्म एवं दर्शन-183 जैन-तत्त्वमीमांसा-35 स्कंधों से मिलकर दृश्य- जगत् की सभी वस्तुएं निर्मित होती हैं। नवीन स्कंधों के निर्माण और पूर्व निर्मित स्कन्धों के संगठन और विघटन की प्रक्रिया के माध्यम से ही दृश्य-जगत् में परिवर्तन घटित होते हैं और विभिन्न वस्तुएँ और पदार्थ अस्तित्व में आते हैं। __ जैन-आचार्यों ने पुदगल को स्कंध और परमाण- इन दो रूपों में विवेचित किया है। विभिन्न परमाणुओं के संयोग से ही स्कंध बनते हैं, फिर भी इतना स्पष्ट है कि पुद्गल-द्रव्य का अंतिम घटक तो परमाणु ही है। प्रत्येक प्रमाणु में स्वभाव से एक रस, एक रूप, एक गंध और शीत-उष्ण या स्निग्ध-रूक्ष में से कोई दो स्पर्श पाये जाते हैं। जैन-आगमों में वर्ण पाँच माने गये हैं-लाल, पीला, नीला, सफेद और काला, गंध दो हैं- सुगन्ध और दुर्गन्ध; रस पाँच हैं- रिक्त, कटु, कसैला, खट्टा और मीठा और इसी प्रकार स्पर्श आठ माने गये हैं- शीत और उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष, मृदु और कर्कश, हल्का और भारी। ज्ञातव्य है कि परमाणुओं में मृदु, कर्कश, हल्का और भारी- ये चार स्पर्श नहीं होते हैं। ये चार स्पर्श तभी संभव होते हैं, जब परमाणुओं से स्कंधों की रचना होती है और तभी उनमें मृदु, कठोर, हल्के और भारी गुण भी प्रकट हो जाते हैं। परमाणु एकप्रदेशी होता है, जबकि स्कंध में दो या दो से अधिक असंख्य प्रदेश भी हो सकते हैं। स्कंध, स्कंध-देश, स्कंध-प्रदेश और परमाणु- ये चार पुद्गल-द्रव्य के विभाग हैं। इनमें परमाणु निरवयव है, आगम में उसे आदि, मध्य और अन्त से रहित बताया गया है। इसके विपरीत, आदि और अन्त होते हैं। न केवल भौतिक वस्तुएँ, अपितु शरीर, इन्द्रियाँ और मन भी स्कंधों का ही खेल है। परमाणुओं से स्कन्ध कैसे बनते हैं- इसकी विस्तृत चर्चा पुद्गल की अवधारणा के अन्तर्गत अलग से की गई है। काल-द्रव्य ____ कालद्रव्य को अनस्तिकाय–वर्ग के अन्तर्गत माना गया है। जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं- आगमिक-युग तक जैन-परम्परा में काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने के सन्दर्भ में पर्याप्त मतभेद था / आवश्यकचूर्णि (भाग-1, पृ. 340-341) में काल के स्वरूप के सम्बन्ध में निम्न तीन मतों