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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-180 जैन-तत्त्वमीमांसा-32 . ज्ञान कहा जाता है। जीवद्रव्य के सन्दर्भ में जैनदर्शन की विशेषता यह है कि वह जीवद्रव्य को एक अखण्ड द्रव्य न मानकर अनेक द्रव्य मानता है। उसके अनुसार, प्रत्येक जीव की स्वतन्त्र सत्ता है और विश्व में जीवों की संख्या अनन्त है। इस प्रकार, संक्षेप में जीवतन्त्र अस्तिकाय, चेतन, अरूपी और अनेक द्रव्य वाला है। धर्म-द्रव्य धर्मद्रव्य की इस चर्चा के प्रसंग में सर्वप्रथम हमें यह स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि यहाँ 'धर्म' शब्द का अर्थ वह नहीं है, जिसे सामान्यतया ग्रहण किया जाता है। यहाँ 'धर्म' शब्द न तो स्वभाव का वाचक है, न कर्त्तव्य का और न साधना या उपासना के विशेष प्रकार का, अपितु इसे जीव एवं पुद्गल की गति के सहायक तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है। जो जीव और पुद्गल की गति के माध्यम का कार्य करता है, उसे धर्मद्रव्य कहा जाता है। जिस प्रकार मछली की गति जल के माध्यम से ही सम्भव होती है, अथवा जैसे विद्युत्-धारा उसके चालक द्रव्य के तार आदि के माध्यम से ही प्रवाहित होती है, उसी प्रकार जीव और पुदगल विश्व में प्रसारित धर्मद्रव्य के माध्यम से ही गति करते हैं। इसका प्रसार-क्षेत्र लोक तक सीमित है। अलोक में धर्मद्रव्य का अभाव है, इसीलिए उसमें जीव और पुद्गल की गति सम्भव नहीं होती और यही कारण है कि उसे अलोक कहा जाता है। अलोक का तात्पर्य है कि जिसमें जीव और पुद्गल का अभाव हो। धर्मद्रव्य प्रसारित स्वभाव वाला (अस्तिकाय) होकर भी अमूर्त (अरूपी) और अचेतन है। धर्मद्रव्य एक और अखण्ड द्रव्य है। जहाँ जीवात्माएँ अनेक मानी गई हैं, वहीं धर्मद्रव्य एक ही है। लोक तक सीमित होने के कारण इसे अनन्तप्रदेशी न कहकर असंख्यप्रदेशी कहा गया है। जैनदर्शन के अनुसार, लोक चाहे कितना ही विस्तृत क्यों न हो, वह असीम न होकर ससीम है और ससीम लोक में व्याप्त होने के कारण धर्मद्रव्य को भी आकाश के समान अनन्तप्रदेशी न मानकर असंख्यप्रदेशी मानना ही उपयुक्त है। अधर्म-द्रव्य अधर्मद्रव्य भी अस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत आता है। इसका भी
SR No.004420
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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