________________ जैन धर्म एवं दर्शन-179 जैन-तत्त्वमीमांसा-31 के अन्तर्गत काल की गणना नहीं थी, अतः काल को अनस्तिकाय-वर्ग में रखा गया और यह मान लिया गया कि काल जीव और पुद्गल के परिवर्तनों का निमित्त है और कालाणु तिर्यक् प्रदेश–प्रचयत्व से रहित हैं, अतः काल अनस्तिकाय है। इस प्रकार, द्रव्यों के वर्गीकरण में सर्वप्रथम दो प्रकार के वर्गीकरण बने- 1. अस्तिकाय-द्रव्य और 2. अनस्तिकाय-द्रव्य / अस्तिकाय-द्रव्यों के वर्ग के अन्तर्गत जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल- इन पाँच द्रव्यों को रखा गया और अनस्तिकाय–वर्ग के अन्तर्गत काल को रखा गया। आगे चलकर द्रव्यों के वर्गीकरण का आधार चेतना-लक्षण और मूर्तता-लक्षण को भी माना गया। चेतना-लक्षण की दृष्टि से जीव को चेतन-द्रव्य और शेष पाँच- धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल को अचेतन-द्रव्य कहा गया। इसी प्रकार, मूर्तता-लक्षण की अपेक्षा से पुद्गल को मूर्त-द्रव्य और शेष पाँच- जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल को अमूर्त-द्रव्य माना गया। इस प्रकार, द्रव्यों के वर्गीकरण की तीन शैलियाँ अस्तित्व में आईं, जिन्हें हम निम्न सारणियों व आधार पर स्पष्टतया समझ सकते हैं - ___द्रव्य, गुण और पदार्थों के उपर्युक्त वर्गीकरण के पश्चात् इन षद्रव्यों के स्वरूप और लक्षण पर भी विचार कर लेना आवश्यक है। इन षद्रव्यों में पाँच द्रव्य अस्तिकाय भी कहे जाते है। इन पंच अस्तिकायों में काल को मिलाकर षद्रव्य माने गये हैं। अब हम इन षद्रव्यों की पृथक्-पृथक् रूप से चर्चा करेंगे। जीव-द्रव्य जीवद्रव्य को अस्तिकाय-वर्ग के अन्तर्गत रखा जाता है। जीवद्रव्य का लक्षण उपयोग या चेतना को माना गया है, इसीलिए इसे चेतन-द्रव्य भी कहा जाता है। उपयोग या चेतना के दो प्रकारों की चर्चा ही आगमों में मिलती है- निराकार उपयोग और साकार उपयोग। इन दोनों को क्रमशः दर्शन और ज्ञान कहा जाता है। निराकार उपयोग को वस्तु के सामान्य स्वरूप का ग्रहण करने के कारण दर्शन कहा जाता है और साकार उपयोग को वस्तु के विशिष्ट स्वरूप का ग्रहण करने के कारण