________________ जैन धर्म एवं दर्शन-181 जैन-तत्त्वमीमांसा-33 विस्तार क्षेत्र या प्रदेश-प्रचयत्व लोकव्यापी है। अलोक में इसका अस्तित्व नहीं है। अधर्म द्रव्य का लक्षण या कार्य जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायक होना माना गया है। परम्परागत उदाहरण के रूप में यह कहा जाता है कि जिस प्रकार वृक्ष की छाया पथिक के विश्राम में सहायक होती है, उसी प्रकार अधर्मद्रव्य जीव और पुद्गल की अवस्थिति में सहायक होता है। जहाँ धर्मद्रव्य गति का माध्यम (चालक) है, वहाँ अधर्मद्रव्य गति का कुचालक है, अतः उसे स्थिति का माध्यम कहा गया है। यदि अधर्मद्रव्य नहीं होता, तो जीव व पुदगल की गति का नियमन असम्भव हो जाता और वे अनन्त आकाश में बिखर जाते। जिस प्रकार वैज्ञानिक-दृष्टि से गुरूत्वाकर्षण आकाश में स्थित पुद्गल-पिण्डों को नियंत्रित करता है, उसी प्रकार अधर्म-द्रव्य भी जीव व पुद्गल की गति का नियमन कर उनकी गति को विराम देता है। संख्या की दृष्टि से अधर्मद्रव्य को एक और अखण्ड द्रव्यं माना गया है। प्रदेश-प्रचयत्व की दृष्टि से इसका विस्तार क्षेत्र लोक तक सीमित होने के कारण इसे भी असंख्य-प्रदेशी माना जाता है, फिर भी वह एक अखण्ड द्रव्य है, क्योंकि उसका विखण्डन सम्भव नहीं है। धर्म और अधर्म-द्रव्यों में देश-प्रदेश आदि की कल्पना मात्र वैचारिक-स्तर पर ही होती है। आकाश-द्रव्य . . ... आकाश-द्रव्य भी अस्तिकाय-वर्ग के अन्तर्गत ही आता है, किन्तु जहाँ धर्म और अधर्म-द्रव्यों का विस्तार लोकव्यापी है, वहाँ आकाश का विस्तारक्षेत्र लोक और अलोक-दोनों हैं। आकाश का लक्षण 'अवगाहन' है। वह जीव और अजीव- द्रव्यों को स्थान प्रदान करता है। लोक को भी अपने में समाहित करने के कारण आकाश का विस्तारक्षेत्र लोक के बाहर भी मानना आवश्यक है। यही कारण है कि जैन-आचार्य आकाश के दो विभाग करते हैं- लोकाकाश और अलोकाकाश / विश्व में जो रिक्त स्थान है, वह लोकाकाश है और इस विश्व से बाहर जो रिक्त स्थान है, वह अलोकाकाश है। इस प्रकार, जहाँ धर्म-द्रव्य और अधर्मद्रव्य असंख्यप्रदेशी माने गए हैं, वहाँ आकाश को अनन्त-प्रदेशी माना गया है। लोक .. की कोई सीमा हो सकती है, किन्तु अलोक की कोई सीमा नहीं है- वह