________________ जैन धर्म एवं दर्शन-289 जैन-तत्त्वमीमांसा-141 औपक्रमिक अथवा अविपाक-निर्जरा के 12 भेद किए हैं, जो कि तप के ही 12 भेद हैं। वे इस प्रकार हैं- 1. अनशन या उपवास, 2. ऊनोदरी-आहार की मात्रा में कमी, 3. भिक्षाचर्या अथवा वृत्ति संक्षेप- मर्यादित भोजन, 4. रसपरित्याग-स्वादजय, 5. काया क्लेश-आसनादि, 6. प्रतिसंलीनताइन्द्रिय-निरोध, कषाय-निरोध, क्रिया-निरोध तथा एकांत निवास, 7. प्रायश्चित्त-स्वेच्छा से दण्ड ग्रहण कर पाप-शुद्धिया दुष्कर्मों के प्रति पश्चाताप, 8. विनय- विनम्रवृत्ति तथा वरिष्ठजनों के प्रति सम्मान प्रकट करना, 9. वैयावृत्य-सेवा, 10. स्वाध्याय, 11.ध्यान और 12. व्युत्सर्ग-ममत्व-त्याग। इस प्रकार, साधक संवर के द्वारा नवीन-कर्मों के आस्रव (आगमन) का निरोध तथा निर्जरा द्वारा पूर्व कर्मों का क्षय कर निर्वाण प्राप्त कर लेता है। 7. मोक्ष-तत्त्व ___ जैन-तत्त्व-मीमांसा के अनुसार संवर के द्वारा कर्मों के आगमन का निरोध हो जाने पर और निर्जरा के द्वारा समस्त पुरातन कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा की जो निष्कर्म शुद्धावस्था होती है, वह मोक्ष है। कर्ममलों के अभाव में कर्मबन्धन भी नहीं रहता और बन्धन का अभाव ही मुक्ति है। मोक्ष आत्मा की शुद्ध स्वरूपावस्था है / अनात्मा में ममत्व-आसक्तिरूप आत्माभिमान का दूर हो जाना ही मुक्ति है। .. बन्धन और मुक्ति की यह समग्र व्याख्या पर्यायदृष्टि का विषय है। आत्मा का विरूप-पर्याय ही बन्धन है और स्वरूप-पर्याय मोक्ष है। पर-पदार्थ या पुद्गल-परमाणुओं के निमित्त से आत्मा में जो पर्याएँ उत्पन्न होती हैं और जिसके कारणं 'पर' में आत्मभाव (मेरापन) उत्पन्न होता है, वही विरूपपर्याय है, परपरिणति है, 'स्व' की 'पर' में अवस्थिति है, यही बन्धन है और इसका अभाव ही मुक्ति है। बन्धन और मुक्ति-दोनों आत्म-द्रव्य या चेतना की ही दो अवस्थाएँ हैं। विशुद्ध तत्त्वदृष्टि से विचार किया जाए, तो बन्धन और मुक्ति की व्याख्या करना संभव नहीं है, क्योंकि आत्म-तत्त्व स्वस्वरूप का परित्याग कर परस्वरूप में कभी भी परिणत नहीं होता। विशुद्ध तत्त्वदृष्टि से तो आत्मा नित्यमुक्त है, लेकिन जब तत्त्व की पर्यायों के सम्बन्ध में विचार किया जाता है, तो बन्धन और मुक्ति की सम्भावनाएँ स्पष्ट हो जाती हैं, क्योंकि बन्धन और