________________ जैन धर्म एवं दर्शन-288 जैन-तत्त्वमीमांसा-140 .. अत:, साधना-मार्ग के पथिक के लिए पहले यह निर्देश दिया गया कि वह प्रथम ज्ञान-युक्त हो, कर्मास्रव का निरोध कर अपने-आपको संवृत करे। संवर के अभाव में निर्जरा का कोई मूल्य नहीं, वह तो अनादिकाल से होती आ रही है, किन्तु भव-परम्परा को समाप्त करने में सहायक नहीं हुई। दूसरे, यदि आत्मा संवर का आचरण करता हुआ भी इस यथाकाल होनेवाली निर्जरा की प्रतीक्षा में बैठा रहे, तो भी वह शायद ही मुक्त हो सकेगा, क्योंकि जैन-मान्यता के अनुसार, प्राणी का कर्म-बन्ध इतना अधिक होता है कि वह अनेक जन्मों में भी शायद इस कर्म-बन्ध से स्वाभाविक निर्जरा के माध्यम से मुक्त हो सके, लेकिन इतनी लम्बी समयावधि में संवर से स्खलित होकर नवीन कर्मों के बन्ध की सम्भावना भी तो रहती है, अत: साधना-मार्ग के पथिक के लिए जो मार्ग बताया गया है, वह है- औपक्रमिक या अविपाक-निर्जरा का। महत्व इसी तपजन्य औपक्रमिक-निर्जरा का है। ऋषिभाषितसूत्र में ऋषि कहता है कि 'संसारी-आत्मा प्रतिक्षण नए कर्मों का बध और पुराने कर्मों की निर्जरा कर रहा है, लेकिन तप से होने वाली निर्जरा ही विशेष (महत्वपूर्ण) है।' मुनि सुशीलकुमारजी लिखते हैं कि 'बन्ध और निर्जरा का प्रवाह अविराम गति से बढ रहा है, किन्तु जो साधक संवर द्वारा नवीन आस्रव को निरुद्ध कर तपस्या द्वारा पुरातन कर्मों को क्षीण करता चलता है, वह अन्त में पूर्ण रूप से निष्कर्म बन जाता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन-आचारदर्शन औपक्रमिक या अविपाक-निर्जरा पर बल देता है। जैन-तत्त्वज्ञान औपक्रमिक-निर्जरा की धारणा के द्वारा यह स्वीकार करकें चलता है कि कर्मों को उनके विपाक के पूर्व ही समाप्त किया जा सकता है। यह अनिवार्य नहीं है कि हमें अपने पूर्वकृत सभी कर्मों का फल भोगना ही पडे। जैन-दर्शन कहता है कि व्यक्ति तपस्या से अपने अन्दर वह सामर्थ्य उत्पन्न कर लेता है कि जिससे वह अपने कोटि-कोटि जन्मों के संचित कर्मों को क्षणमात्र में बिना फल भोगे ही समाप्त कर देता है। साधक के द्वारा अलिप्त भाव से किया हुआ तपश्चरण उसके कर्म-संघात पर ऐसा प्रहार करता है कि वह जर्जरित होकर आत्मा से अलग हो जाता है। औपक्रमिक-निर्जरा के भेद- जैनाचार-दर्शन में तपस्या को पूर्व संचितकर्मों के नष्ट करने का साधन माना गया है। जैन-विचारकों ने इस