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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-290 जैन - तत्त्वमीमांसा-142 मुक्ति पर्याय-अवस्था में ही सम्भव होती है। मोक्ष को तत्त्व कहा गया है, लेकिन वस्तुत: मोक्ष तो बन्धन का अभाव ही है। जैनागमों में मोक्ष-तत्त्व पर तीन * दृष्टियों से विचार किया है- (1) भावात्मक-दृष्टिकोण, (2) अभावात्मकदृष्टिकोण और (3) अनिर्वचनीय-दृष्टिकोण। (अ) भावात्मक-दृष्टिकोण- जैन-दार्शनिकों ने भावात्मक-दृष्टिकोण से विचार करते हुए मोक्षावस्था को निर्बाध अवस्था कहा है। मोक्ष-अवस्था में समस्त बन्धनों के अभाव के कारण आत्मा के निज गुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाते हैं। यह मोक्ष-बाधक तत्त्वों की अनुपस्थिति और आत्मशक्तियों का पूर्ण प्रकटन है। जैन-दर्शन के अनुसार, मोक्षावस्था में मनुष्य की अव्यक्त शक्तिया व्यक्त हो जाती हैं। उनमें निहित ज्ञान, भाव और संकल्प आध्यात्मिकअनुशासन के द्वारा अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तशक्ति में परिवर्तित हो जाते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष की भावात्मक-अवस्था का चित्रण करते हुए उसे 'शुद्ध, अनन्तचतुष्टययुक्त, शाश्वत, अविनाशी, निर्बाध, अतीन्द्रिय, अनुपम, नित्य, अविचल, अनालम्ब कहा है।' आचार्य आगे चलकर मोक्ष में निम्न बातों की विद्यमानता की सूचना करते हैं-(1) पूर्ण सौख्य, (2) पूर्णज्ञान, (3) पूर्णदर्शन, (4) पूर्णवीर्य (शक्ति), (5) अमूर्त्तत्व, (6) अस्तित्व और (7) सप्रदेशता। ये सात भावात्मक तथ्य सभी भारतीय-दर्शनों को स्वीकार नहीं है / वेदान्त सप्रदेशता को अस्वीकार करता है। सांख्य सौख्य एवं वीर्य को और न्याय-वैशेषिक ज्ञान और दर्शन को भी अस्वीकार कर देते हैं। बौद्धशून्यवाद अस्तित्व का भी निरसन करता है और चार्वाक - दर्शन मोक्ष की धारणा को ही स्वीकार नहीं करता। वस्तुत:, मोक्षावस्था को अनिर्वचनीय मानते हुए भी विभिन्न दार्शनिक-मान्यताओं के प्रत्युत्तर के लिए ही इस भावात्मक-अवस्था का वर्णन किया गया है। भावात्मक-दृष्टि से.जैन-विचारणा मोक्षावस्था में अनन्त-चतुष्टय, अर्थात् अनन्त-ज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्तसौख्य और अनन्त-शक्ति की उपस्थिति पर बल देती है। बीजरूप में यह अनन्त-चतुष्टय सभी जीवों में स्वाभाविक गुण के रूप में विद्यमान है। मोक्षदशा में इनके अवरोधक कर्मों का क्षय हो जाने से यह पूर्ण रूप में प्रकट हो जाते हैं। अनन्त-चतुष्टय के अतिरिक्त अष्टकर्मों के क्षय के आधार पर सिद्धों में आठ गुण भी जैन-दर्शन में मान्य हैं। (1) ज्ञानावरण-कर्म के नष्ट हो जाने से मुक्तात्मा
SR No.004420
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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